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________________ २१८ प्रज्ञापनासूत्रे विशेषणविशिष्टस्य कतिविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः ? इति पृच्छा, भगवानाह-गोयमा ! हे गौतम ! 'उच्चागोयस्स कम्मस्स जीवेणबद्धस्स जाव अट्टविहे अणुभावे पण्णत्ते' उच्चैर्गोत्रस्य कर्म णो जीवेन बद्धस्य यावत्-स्पृष्टस्य बद्धस्पर्शस्पृष्टस्य इत्यादि पूर्वोक्तविशेषण विशिष्टस्य अष्टविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः, तदेवाष्टविधत्वं प्रतिपादयति-'तं जहा -जाइविसिट्ठया १, कुलविसिट्टया २, बलविसिट्टया ३, रूवविसिट्टया ४, तवविसिट्ठया. ५, सुयविसिट्ठया ६, लाभविपिट्टया ७, इस्सरियविसिट्टया ८' तद्यथा-जातिविशिष्टता १, कुलविशिष्टता २, बलविशिष्टता ३, रूपविशिष्टता ४. तषोविशिष्टता ५, श्रतविशिष्टता ६, लाभविशिष्टता ७, ऐश्वर्यविशिष्टता ८, तत्र जात्या विशिष्टो जातिविशिष्टस्तस्य भावो जातिविशिष्टता, सा तावत्-उच्चैगोत्रस्य प्रथमोऽनुभावोऽवगन्तव्यः, एवं कुलेन विशिष्टः कुलविशिष्टस्तम्य भावः कुलविशिष्टता, एवमग्रेऽपि, अथोच्चैगोत्रस्य श्री गौतमस्वामी-हे भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट. बद्धस्पर्शस्पृष्ट, संचित, चित, उपचित, आपाकप्राप्त, विषाकप्राप्त, फलप्राप्त आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाले उच्च गोत्र कर्म का अनुभाव कितने प्रकार का हैं ? श्री भगवान्-हे गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध उच्चगोत्र का अनुभाव आठ प्रकार का कहा गया है । वह इस प्रकार है : (१) जातिकी विशिष्टता (२) कुल की विशिष्टता (३) बल की विशिष्टता (४) रूप की विशिष्टता (५) तप की विशिष्टता (६) श्रुत की विशिष्टता (७) लाभ की विशिष्टता और (८) ऐश्वर्य की विशिष्टता। जिस बाह्य इत्यादि पुद्गल का वेदन किया जाता है, क्योंकि उस द्रव्य के संबंध में अथवा राजा आदि विशिष्ट पुरुष के परिग्रह से नीच जाति में जन्मा हुआ भी पुरुष जाति सम्पन्न जैसा लोकमान्य बन जाता है । इस प्रकार जाति और कुल की विशिष्टता समझनी चाहिए । जैसे लकडी घुमाने से मल्लों में जो शारीरिक बल उत्पन्न શ્રી ગૌતમસ્વામી—હે ભગવન્! જીવના દ્વાર બદ્ધ, પૃષ્ટ, બદ્ધ સ્પર્શ પૃષ્ટ, સંચિત ચિત, ઉચિત, આપાઝપ્રાપ્ત વિપાકાપ્ત ફલ પ્રાપ્ત આદિપૂર્વોક્ત વિશેષણવાળા ઉચ્ચ ગોત્ર કર્મના અનુભાવ કેટલા પ્રકારના છે? શ્રી ભગવન –હે ગૌતમ! જીવના દ્વારા બદ્ધ ઉચ્ચ ગોત્રના અનુભાવ આઠ પ્રકારના हेसा छे. ते मा ४ारे थे, (१) तिनी विशिष्टता (२) पुजनी विशिष्टता (3) मगनी विशिष्टता (४) ३५नी विशिष्टता (५) तपनी पशिष्टता (६) श्रुतनी विशिष्टता (७) सामना विशिष्टता (૮) ઐશ્વર્યાની વિશિષ્ટતા જે બાહ્ય દ્રવ્યાદિ ગુગલનું વેદન કરાય છે, કેમકે તે દ્રવ્યના સંબન્ધમાં અથવા રાજા આદિ વિશિષ્ટ પુરૂષના પરિગ્રહથી નીચ જાતિમાં જન્મેલે પણ પુરૂષજાતિ સંપન્ન જેમ લેકમાન્ય બની જાય છે. એ પ્રકારે જાતિ અને કુલની વિશિષ્ટતા સમજવી જોઈએ. જેમ લાકડી ફેરવવાથી શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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