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________________ २१६ प्रज्ञापनासूत्रे अशुभनाम्नः खलु कर्मणो जीवेन बद्धस्य स्पृष्टस्य बद्धस्पर्शष्टस्य संचितस्य चितस्य उपचितस्य आपाकप्राप्तस्य विपाकप्राप्तस्य इत्यादिपर्वोक्तविशेषण विशिष्टस्य कतिविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः ? इति पृच्छा, भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! ‘एवंचेव' एपञ्चैवशुभनामकर्मोक्तरीत्येव दुःखनाम्नः कर्मणोऽपि जीवेन बद्धस्य स्पृष्टस्य यावत् पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टस्य चतुर्दशविधोऽनुभावः प्रज्ञप्तः किन्तु -'णवरं अणिहा सदा जाव हीणस्सरया दीणस्सरया अकंतस्सरया' नवरम्-शुभनामकर्मापेक्षया अशुभनामकर्मणो विशेषस्तु अनिटाः अनभिलषिताः शब्दाः १ यावत्-अनिष्टानि रूपाणि २ अनिष्टा गन्धाः३ अनिष्टारसाः ४ अनिष्टाः स्पर्शाः ५, अनिष्टा गतिः ६, अनिष्टा स्थितिः७ अनिष्टं लावण्यम् ८ अनिष्टा यशः कीतिः ९, अनिष्ट उत्थानकर्मबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमः १० हीनस्वरता ११ दीनस्वरता १२ अकान्तस्वरता १३ अमनोज्ञस्वरता १४, चेत्यवसेयः, अयाशुभनामकर्मोदयमपि शुभनामकर्मोदयरीत्यैव व्यपदिशमाह-'जं वेदेइ, सेसं तं चेव जाव चउद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते' यं वेदयते पुद्गलम्-गर्दभोष्ट्रश्वप्रभृतिलक्षणम् , जीवद्वारा पद्ध, स्पृष्ट, बद्धस्पर्श स्पृष्ट, संचित, चित, उपचित, आपाप्राप्त विपाक प्राप्त आदि विशेषणों से विशिष्ट हैं, अनुभाव कितने प्रकार का कहा है ? श्री भगबान्- हे गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, आदि विशेषणों से विशिष्ट दुःखनामकम का अनुभाव चौदह प्रकार का कहा गया है । यह चौदह प्रकार शुभनाम कर्म के समान है, मगर इस में विशेषता यह है कि शुभनामकर्म का विपाक इष्ट स्वरता आदि हैं, जब कि अशुभ नामकर्म आदि का विपाक अनिष्टस्वरता आदि अर्थात्:-(१) अनिष्ट शब्द (२) अनिष्ट रूप (३) अनिष्ट गन्ध (४)अनिष्ट रस (५) अनिष्ट स्पर्श (६) अनिष्ट गति (७) अनिष्ट स्थिति (८) अनिष्ट लावण्य (९) अनिष्ट यशःकीर्ति (१०) और अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल-वीर्य-पुरुषकार-पराकम (११) हीन स्वरता (१२) दीनस्वरता (१३) अकान्त स्वरता तथा (१४) अमनोज्ञ स्वरता। जिसगर्दभ, ऊट, कुत्ता, आदि पुद्गल का वेदन किया जाता है, क्यों कि उनके १६, २५४, १२५शष्ट, सयित, यित, उपयित, माया प्राप्त, विपास माह વિશેષણથી વિશિષ્ટ છે, અનુભાવ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે? શ્રી ભગવાન–હે ગૌતમ! જીવના દ્વારા બદ્ધ, પૃષ્ટ, આદિ વિશેષણોથી વિશિષ્ટ દુઃખનામ કર્મના અબુભાવ ચૌદ પ્રકારના કહેલા છે. તે ચોદ પ્રકારના શુભનામકર્મના સમાન છે, પણ તેમાં વિશેષતા એ છે કે શુભનામકર્મના વિપાક ઈષ્ટસ્થરતા આદિ છે, જ્યારે અશુભनाममना विपा अनिष्ट २१२ता माहि छ. अर्थात् (१) अनिष्ट २५६ (२) मनिट३५, (२) मनिष्ट आ4 (४)अनिष्ट २स (५) मनिष्ट २५श (6) मनिष्टगति (७) मनिष्ट स्थिति (4) अनिष्ट सापश्य (6) मनिष्टयश;ति (१०) अने मनिष्ट त्यान, भलवीय ५३५४१२ ५२म (११) हीन स्वरत। (१२) टीन २१२त। (१३) म त २१२। (१४) अमनोज्ञ २५२ता. જે ગર્દભ, ઊંટ, આદિના પુગલનું વેદન કરાય છે, કેમકે તેમના સમ્બન્ધથી અનિષ્ટ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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