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प्रमेयबोधिनी टोका पद २२ सू. ८ प्राणातिपातविरमणनिरूपणम् सप्तविधवन्धकाः, अथवा सविधवन्धकाच अष्टविध बन्धकश्च,अथवा सप्तविधवन्ध काश्च अष्टविधवन्धकाश्च, एवं यावद वैमानिकाः, नवरं मनुष्याणां यथा जीवानाम्
___टीका-अथ प्राणातिपातक्रिया विरतस्य कर्मबन्धो भवति न येति प्रश्नमनेकान्तवादेन समाधातुमाह-'पाणाइयायविरएण भंते ! जीये कइ कम्मपगडीओ पंध?' हे भदन्त ! प्राणातिपातविरत सलु जीयः कति कर्मप्रकृतीः बध्नाति ? भगवानाह'गोयमा !' हे गौतम ! 'सनविहबंधए वा, अविहबंधए वा, छबिहबंधए वा एगविहबंधए या अबंधए या प्राणातिपातविरतः खलु जीयः कदाचित् सप्तविधकर्मबन्धको वा भवति, कदाचित् अष्टविधकर्मबन्धको वा भवति, कदाचित् पइविधकर्मबन्धको या सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहयं धगा)हे गौतम! सभी सात प्रकृतियों के बंधक होते हैं । ___ (अहया सत्तविहवंधगा य अट्ठविहब धगे य) अथवा अनेक सातके बंधक, एक आठका बंधक (अहवा सत्तविहबंधगा य अविश्व धगा य)अथया अनेक सातके बंधक, अनेक आठका बंधक ( एवं जाय वेमाणिया) इस प्रकार वैमानिक कों तक कहना चाहिए (णवरं मक्षाणं जहा जीवाण) विशेष यह कि मनुष्यों की वक्तव्यता जीवोंके समान समझलेवे।
टीकार्थ:-जो जीव प्राणातिपात से विरत होता है, उसे कर्मबंध होता है? या नहीं ? इस प्रश्न का अनेकान्तवाद से समाधान करते हुए कहते है
श्री गौतमस्वामी हे भगवन् ! प्राणातिपात से विरत जोय कितनी कर्मप्रकतियों का बंध करता है? श्री भगवान्-हे गौतम ! कोई जीव सात प्रकार को कर्मप्रकृतियों का बंध करता है कोई आठों कर्म प्रकृतियों का बंध करता है। कोई छह प्रकृतियों का बन्ध करता शनी विरत ना२४ 32ी ४ प्रतिया गांधे छ ? (गायमा ! सवे वि ताव होजा सत्तविह बंधगा)गौतम ! मया सात प्रतियोना ५४ थाय छे.
(अहवा सत्तविहबधगा अहमिहबंधगे य) अथवा भने सात अने में माना (अहवा सत्तविहबंधगा य अठविहबधगा य) अथ५अने सातना र मानी मा (अहया सतविहबंधगा य अविहबंधगा य) मा भने सातनाममने माना ( एवंजाव वेमाणिया) से प्रारे वैमानि सुधी युनाये. ( गवर मणूसाग जहा जीवाण) विशेष એ કે મનુષ્યોની વક્તવ્યતા છની સમાન સમજવા.
ટીકાર્થ-જે જીવ પ્રાણાતિપાતથી વિરત થાય છે, તેને કર્મ બંધ થાય છે કે નહીં? આ પ્રશ્નનું અનેકાન્તવાદથી સમાધાન કરતાં કહે છે| શ્રી ગૌતમસ્વામી-હે ભગવન ! પ્રાણાતિપાતથી વિરત જીવ કેટલી કર્મપ્રકૃતિને
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શ્રી ભગવન-હે ગૌતમ! કોઈ જીવ સાત પ્રકારની કર્મપ્રકૃતિને બંધ કરે છે, કઈ આઠે કર્મ પ્રકૃતિનો બંધ કરે છે, કેઈ છ પ્રકારની કર્મપ્રકૃતિને બન્ધ કરે છે, કોઈ એક
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શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫