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________________ प्रमेयबोधिनी टोका पद ३६ सू० १४ केवलिसमुद्घातगतक्षेत्रनिरूपणम् ११११ गन्धसमुद्गकं गृहीत्वा तम् अवदालयति तं महान्तम् एकं सविलेपनं गन्धसमुद्गकमवदाल्य एवमेवं कृत्वा केवल कल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं विमिरप्सरोनिपातैत्रिसप्तकृत्वोऽनुपर्यटय शोघ्रमा गच्छेत्, तन्नूनं गौतम ! म केवल कल्पो जम्बूद्वीपो द्वीपस्तै णिपुद्गलैः स्पृष्टः ? हन्त, स्पृष्टः, छमस्था खलु गौतम ! मनुष्यस्तेषां घ्राणपुद्गलानां किश्चिद् वर्णेन वर्णम्, गन्धेन गन्धम्, रसेन रपम्. स्पर्शन स्पर्श जानाति पश्यति ? भगवन् ! नायमर्थः समर्थः, तद् एते. चाला देव (एगं) एक (महं) बडी (सविलेवर्ण) विलेपन सहित (गंधसमुग्गयं) सुगंध की डिविधा को (गहाय) ग्रहण कर के (तं अबदालेइ उसे खोलता है (त महं एगं सविलेषण गंधसमुग्गयं अबदालइत्ता) उस बडी एक विलेपन युक्त गंध की डिबिया को खोलकर (इणामेव कटूटु) ऐसा कर के (केवलकप्पं जंबुदोयं) सम्पूर्ण जम्बूद्वीप नामक द्वीप को तिहिं अच्छरणियातेहिं) तीन चुटकियों में (तिसत्तखुत्तो) इक्कीस बार (अणुपरियट्टियदित्ताण) घूम कर (हब्धमागच्छेजा) शीघ्र आ जाय (से नूर्ण गोयमा !) अब निश्चय हे गौतम ! (से केवल. कप्पे जंबुद्दीचे दीवे) यह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप नामक द्वीप (तेहिं घाणपोग्गलेहिं) उन गंध पुद्गलों से (फुडे ?) स्पृष्ट है ? (हंता फुडे) हां, स्पृष्ट है (छ उमस्थे गं गोयमा ! मणूसे) हे गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य (तेसि घाणपुग्गलाण) उन गंध पुद्गलों से (किंचि) किंचित् (वण्णेणं वपणं) चक्षु से वर्ण को (गंधेणं गंध) घाण से गंध को (रसेणं रस) रसनेन्द्रिय से रस को (फासेणं फासं) स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श को (जाणइ पासइ ?) जानता देखता है ? (भगवं, जो इणटे समझे) हे भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं (एएणटेणं गोयमा एवं बुच्चह) इस हेतु से (एग) ४ (मह) भाटी (सविलेवण) सेपन सहित (गंधसमुगगय) सु भाने (गहाय) बड़ए। रीने (तं अवदालेइ) तेने पास छ (तं महं एगं सविलेवण गंधसमुग्गयं अवदलइत्ता) विसे५ थी १२वी से भारी मा मात्रीने. (इणामेय कटु) ओम पुरीने (केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीव) सम्पू मुदी५ नाम, दीपने (तिहिं अच्छरराणिवातेहि) । २५टीयोमा (तिसत्तखुत्तो) से पीस पा२ (अणुपरियट्टित्ताण) सभीन (हव्यमागच्छेज्जा) मापी जय (से नूण गोयमा !) ये निश्चय गौतम ! (से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे) ते साप riyal५ नाम द्वा५ (तेहि घाणपोग्गलेहि) ते ५ लाथी (फुडे) २५ट छ ? (हंता फुडे) है।, स्पृष्ट छे. (छउमत्थेण गोयमा ! मणूसे) हे गौतम ! ७६८२५ मनुष्य (तेसि घाणपुग्गलाणं) ते ५ साथी (किंचि) यित (यण्णेण यण्ण) यक्षुधा पाने (गंधेण गंध) नाथी धने (रसेण रस) Hथी २सने (फासेण फास) २५0 नन्द्रिया २५शन (जाणइ पासइ) and-हमे छ. (भगवं णो इणढे समझे) हे पापन् । मामय समय नथी (से एएणटूठेणं गोयमा ! શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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