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________________ १०८८ प्रज्ञापनासूत्रे एक दिशि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकस्य निरवशेषं यथा नैरयिकस्य, मनुष्यवानव्यन्तरज्‍ रज्योतिष्कवैमानिकस्य निरवशेषं यथा असुरकुमारस्य, जीवः खलु भदन्त ! तैजससमुद्घातेन समवहतः समवहत्य यान् पुद्गलान् निक्षिपति तैः खलु मदन्त ! पुद्गलैः कियत् क्षेत्रम आपूर्णम् ? कियत् क्षेत्रं स्पृष्टम् ? एवं वैक्रिपः समुद्घात स्तथैत्र नवरम् अयामेव जघन्येन अङ्गुलस्य असंख्येयभागं शेषं तच्चैव, एवं यावद् वैमानिकस्य, नवरं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकस्य एकदिशि, एतावत् क्षेत्रमापूर्णम्, एतावत् क्षेत्रं स्पृष्टम् जीवः खलु भदन्त ! आहारकएगदिसिं) विशेष यह कि एक दिशा में । (पंचिदियति रिक्खजोणियस्स निरवसेसं जहा नेरइयस्स) पंचेन्द्रिय तिर्येच का समग्र कथन नारक के समान । (मणूस वाणमंतर जोइसियवेमाणियस्स निरवसेसं जहा असुरकुमारस्स) मनुष्य, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक का कथन असुरकुमार के समान (जीचे णं भंते ! तेगसमुग्धारणं समोहए ) हे भगवन् ! जीव तैजससमुद् घात से समवहन हुआ (समोहणित्ता) समवहन होकर (जे पोग्गले निच्छुभइ) जिन पुद्गलों को निकालता है (तेहिं णं भंते ! पोग्गलेहि) हे भगवन् ! उन पुद्गलों से (केचइए खेते अफुण्णे) कितना क्षेत्र आपूर्ण हुआ ? (केवइए खिते फुडे) कितना क्षेत्र स्पष्ट हुआ ? ( एवं जहेब येउच्चिए समुग्धाए तहेव ) इस प्रकार जैसा वैक्रियसमुद्घात वैसा ही (नवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं) विशेष - लम्बाई में अंगुल का असंख्यातवां भाग (सेसं तं चेव) शेष वही (एवं जाय वैमाणियस्स) इसी प्रकार यावत् वैमानिक का (नवरं पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स) विशेष-पंचेन्द्रिय तिर्येच का ( एगदिसिं) एक दिशा में (एवइए खेत्ते अफुण्णे) इतना क्षेत्र आपूर्ण हुआ (एवइए खेत्ते फुडे) इतना क्षेत्र स्पृष्ट हुआ । એ કે એક દિશામાં (चिंदियतिरिक्ख जोणियस्स निरवसेस जहा नेरहयस्स) पंथेन्द्रिय तिर्यान्यना उथन સમુચ્ચય નારકના સમાન, (जीवेणं भंते ! तेयगसमुग्घाएणं समोहए) हे भगवन् ! ग्रुप तै ससमुद्घातथी समवहत थयेस (समोहणित्ता) सभवहृत थने (जे पोग्गले निच्छुभइ) ने युद्दगसेाने आढे छे. (तेहिणं भंते ! पोग्गलेहिं) हे भगवन् ! ते युगसोथी (इए खेत्ते अफुण्णे) डेंटल क्षेत्र यापूर्श थथा (केइ खेत्ते फुडे) डेंटला क्षेत्र स्पृष्ट थया ? ( एवं जहेब वेउच्चिए समुग्धाए तहेव ) ये अमारे प्रेम वैडियसभुद्धात तेवा ४ (नवर आयामेण जहणणेणं' अंगुलरस असंखेज्जइ भार्ग) विशेष ग्यांगसना असंख्यातमा लाग (सेस तं चेव) शेष ते ( एवं जाय वैमाणि - यस्स) प्रारे भवत् वैभानिम्ना (णवर पंचिदियतिरिक्ख जोणियरस ) विशेष पये શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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