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________________ प्रबोधिनी टीका पद २१ सू० ११ औदारिकादि शरीरवता अल्यबहुत्व निरूपणम् ८२१ शरीराणि द्रव्यार्थतया शरीरमात्र द्रव्य संख्यया भवन्ति, उत्कृष्टेनापि देषां सहस्रपृथक्त्वस्यैबोपलभ्यमानत्वात् तथाचोक्तम्- 'उक्कोसेण उ जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं' उत्कृष्टेन तु युगपत् सहस्राणां पृथक्त्वमात्रम्' इति, तेभ्योऽपि 'वेउब्वियसरीरा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा' वैकियशरीराणि द्रव्यार्थतया शरीरमात्रद्रव्यसंख्यया असंख्येयगुणानि भवन्ति, सर्वेषां नैरयिकाणां सर्वेषाञ्च देवानां कतिपयपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकमनुष्य बादरवायुकायिकानां च वैक्रियशरीरसंभवात्, तेभ्योऽपि - 'ओरालियसरीरा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा' औदारिकशरीराणि द्रव्यार्थतया - शरीरमात्रद्रव्यसंख्यया असंख्येयगुणानि भवन्ति, पृथिव्यप्तेजोशयुवनस्पतिकायिक द्वित्रि चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकमनुष्याणामौदा रिकशरीर सद्भावात् पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकशरीराणाञ्च प्रत्येकम संख्ये यलो का का शप्रदेश प्रमाणत्वात्, तेभ्योऽपि - ' तेयाकसरी दोचितुल्ला दव्वट्टयाए अनंतगुणा' तैजसकार्मणशरीराणि स्वस्थाने परस्पराविना - भावित्वात् द्वयान्यपि तुल्यानि द्रव्यार्थतया शरीरमात्रद्रव्यसंख्यया अनन्तगुणानि भवन्ति सूक्ष्मकर्मणशरीर में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेश की अपेक्षा द्रव्य - प्रदेश की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? भगवान् हे गौतम! सब से कम द्रव्य की अपेक्षा से आहारक शरीर हैं, क्योंकि आहारकशरीर उत्कृष्ट, संख्यात हों तो भी सहस्रपृथकत्व ( दो हजार से नौ हजार तक) ही होते हैं। कहा भी है-एक साथ आहारकशरीरों की अपेक्षा वैशरीर द्रव्य से असंख्यात गुणा अधिक होते हैं, क्योंकि सभी नारकों के सभी देवों के, कतिपय पंचेन्द्रिय तिर्यचों के, मनुष्यों के और बादर वायुकायिकों के वैशिरीर होता है। वैक्रिय शरीर की अपेक्षा औदारिकशरीर द्रव्य की अपेक्षा - शरीरसंख्या की दृष्टि से असंख्यात गुणा होते हैं, क्योंकि औदारिक शरीर पृथ्वीकायिकों, अष्कायिकों, तेजस्काथिकों, वायुकाधिकों, वनस्पतिका यिकों, दीन्द्रियों, श्रीन्द्रियों, चतुरिन्द्रियों, पंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों के होता है और पृथ्वी - अप - तेज, वायु तथा वनस्पतिकायिकों में से प्रत्येक असंख्यात लोकाकाश प्रमाण हैं । तैजस और कार्मणशरीर दोनों बराबर-बराबर होते हैं किन्तु औदारिक शरीरों की अपेक्षा अनन्त गुणा हैं, क्योंकि सूक्ष्म और बादर निगोद કે આહારકશરીર ઉત્કૃષ્ટ સ`ખ્યક હૈાય તે પણ સહસ્ર પૃથકત્વ(બે હજારથી નવહજાર સુધી)જ હોય છે. કહ્યું પણ છે- એકીસાથે આહારકશરીર અધિકથી અધિક રહસ્ર પૃથકત્વ હોય છે, આહારકશરીરાની અપેક્ષાએ વૈક્રિયશરીર દ્રવ્યથી અસંખ્યાતગણુા ાય છે, કેમ કે બધા નારકા, બધા દેવાના કેટલાક પંચેન્દ્રિય તિય ચાંના, મનુષ્ચા અને માદર વાયુકાયિકાના વૈક્રિયશરીરની અપેક્ષાએ ઔદારિક શરીર દ્રવ્યની અપેક્ષાએ શરીર સંખ્યાની દૃષ્ટીથી સંખ્યાતગણા હેાય છે, प्रेम हे मोहारि४शरीर पृथ्वीभयि, अछायि।, ते स्थायि है। वायुअयि है। वनस्पतिभन યિકા, દ્વીન્દ્રિયા, ત્રીન્દ્રિયા ચતુરિન્દ્રિય તિય ચા અને મનુષ્યેાના હોય છે અને પૃથ્વીકાય-અપ્તેજ-વાયુ તથા વનસ્પતિકાયિકામાંથી પ્રત્યેક અસંખ્યાત લે।કાકાશ પ્રમાણુ છે. તૈજસ અને ક્રાણુશરીર અને બરાબર હાય છે પણ ઔરિકશરીરની અપેક્ષાએ અનન્તગણા છે, श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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