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________________ प्रज्ञापनासूत्रे अमाविसम्यदृष्टयुपपनकास्ते खलु महावेदनतरकाः, तत् तेनार्थेन गौतम ! एव मुच्यतेज्योतिष्कवैमानिका नो सर्वे समवेदनाः, शेषं तथैव । ॥ सू० ७ ॥ टीका - अथ वानव्यन्तरादीनां समानाहारादिकमसुरकुमारवद् अतिदिशन्नाह - ' वाणमंतराणं जहा - असुरकुमाराणं' चानव्यन्तराणां समानाहारादिवक्तव्यता यथा असुरकुमाराणामुक्ता तथैव वक्तव्या, तथा च यथा असुरकुमाराः संज्ञिभूताच असंज्ञिभूताच, तत्र खलु ये ते सहिभूतास्ते महावेदनाः, ये असंज्ञिभूतास्ते अल्पवेदना:' इत्येवंरीत्या प्रतिपादिता वानव्यन्तरा अपि तथैव प्रतिपादनीयाः, यतोऽसुरकुमारादिषु वानव्यन्तरान्तेषु देवेषु असंज्ञिनामुत्पादात् तथा चोक्तम् - व्याख्याप्रज्ञप्तौ-प्र - प्रथम शतके द्वितीयोदेशके - 'असनीणं जहणणं भवणवासीसु सम्मदिट्ठी उववन्नगा ते णं महावेयणतरागा) उनमें जो अमायीसम्यग्दृष्टि हैं वे महावेदनावाले हैं (से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-वेमाणिया नो सव्वे सम. daणा) इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वैमानिक सब समान वेदनावाले नहीं हैं (सेसं तहेव) शेष उसी प्रकार । टीकार्थ - अब यह निरूपण करते हैं कि वानव्यन्तर आदि के समाहार आदि का कथन असुरकुमारों के समान समझलेना चाहिए वानव्यन्तरों के समान आहार आदि की वक्तव्यता उसी प्रकार कहलेनी चाहिए जैसी असुरकुमारों की कही है ! अर्थात् जैसे असुरकुमार दो प्रकार के हैं संज्ञिभूत और असंज्ञिनूत, और उनमें जो संज्ञिभूत हैं वे महावेदनावाले तथा असंज्ञिभूत हैं वे अल्पवेदनावाले होते हैं, इत्यादि कथन किया गया है, उसी प्रकार वानव्यन्तरों के विषय में भी जानना चाहिए। क्योंकि असुरकुमारों में असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति होती है । व्याख्या प्रज्ञप्ति में भी कहा हैभायी मिथ्यादृष्टि उपयन्न छे ( तेणं अप्पवेयणातरागा ) तेथे । तर बेहनावाला छे (तत्थणं जे ते अमाईसम्मदिट्ठी उववन्नगा तेणं महावेयणतरागा) तेथेोमां ने सभायी सभ्यदृष्टि छे तेथे भडावेनावाजा छे. (से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-वेमाणिया नो सव्वे समवेयणा) से रखे है गौतम ! भ उवाय छेवैमानिक अधा समान बेहना वाजा नथी ( सेसं तहेब) शेष पूर्वोस्त रीते समन्वु. ५६ ટીકા-હવે તે નિરૂપણ કરે છે કે વાનવ્યન્તર દેવ આદિના સમાહાર આદિનું કથન અસુરકુમારાના સમાન સમજી લેવુ' જોઈ એ-વાનન્ત્રન્તરની સમાન આહાર આદિની વક્ત વ્યતા એજ પ્રકારે કહેવી જોઈ એ જેવી અસુરકુમારાની કહી છે. અર્થાત્ જેવા અસુરકુમારાના બે પ્રકાર કહ્યા છે—સન્નિભૂત અને અસંજ્ઞિભૂત, અને તેમાં જે સંન્નિભૂત છે તે મહાવેદનાવાળા તથા જેએ અસન્નિભૂત છે તેએ અપવેદનાવાળા હાય છે, ઈત્યાદિ કથન કરાયેલુ છે. એજ પ્રકારે વાનભ્યન્તરાના વિષયમાં પણ જાણવુ જોઇએ. કેમકે અસુ રકુમારામાં તથા વાનન્ધ્યન્તરમાં અસ'જ્ઞિ જીવાની ઉત્પત્તિ થાય છે. વ્યાખ્યા પ્રસપ્તિમાં श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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