SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेपलापिनी टोका पद १७ १०७ वानव्यन्तरसमानाहारादिनिरूपणम् 'सेसं जहा नेरइयाणं' शेषम्-आयुर्विषयो यथा नैरयिकाणां प्रतिपादितस्तथा मनुष्याणामपि प्रतिपादनीय इति भावः ॥ सू० ६ ॥ वानव्यतर समानाहारादिवक्तव्यता __ मूलम्-वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं, एवं जोइसिय वेमाणियाण वि, नवरं ते वेयणाए दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-माइमिच्छट्रिी उववन्नगा य अमाइसम्मदिट्टी उववन्नगा य, तत्थ णं जे ते माइमिच्छ दिट्टी उववनगा ते णं अप्पवेयणतरागा, तत्थ गं जे ते अमाइसम्मदिट्री उववन्नगा ते णं महावेयणतरागा, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइजोइसियवेमाणिया नो सव्वे समवेयणा, सेसं तहेव ॥सू० ७॥ छाया-वानव्यन्तराणां यथा असुरकुमाराणाम्, एवं ज्योतिष्कवैमानिकानामपि, नवरं ते वेदनायां द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकाश्च, अमायिसम्यग्दृष्टयुपपनकाश्च, तत्र खलु येते मायिमिथ्यादृष्टयुपपन्नकास्ते खलु अल्पवेदनतरकाः, तत्र खलु ये ते मिथ्यादर्शनप्रत्यया। शेष आयु का कथन उसी प्रकार समझलेना चाहिए जैसा नारकों का किया गया है। वानव्यन्तर-समाहार आदि की वक्तव्यता शब्दार्थ-(वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं) वानव्यन्तरों का कथन जैसे असु. रकुमारों का (एवं जोइसिय वेमाणियाण वि) इसी प्रकार ज्योतिष्क-वैमानिकों का भी (नवरं ते बेयणाए ते दुविहा पण्णत्ता) विशेष यह कि वेदना की अपेक्षा वे दो प्रकार के कहे हैं (तं जहा-माइमिच्छद्दिट्टी उववन्नगा य अमाइ सम्मदिट्ठी उववनगा य) मायी-मिथ्यादृष्टि-उत्पन्न और अमायीसम्यग्दृष्टि-उत्पन्न (तत्थ णं जे ते माइमिच्छट्टिी उववन्नगा) उनमें जो मायी-मिथ्यादृष्टि उत्पन्न हैं (ते णं अपपवेयणतरागा) वे अल्पतर वेदनावाले हैं (तत्य णं जे ते अमाई અને મિથ્યાદર્શન પ્રત્યયા. શેષ આયુનું કથન એજ પ્રકારે સમજી લેવું જોઈએ કે रे ना२नु राये छ. વાનવન્તર સમાહાર આદિની વક્તવ્યતા शहाथ-(वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं) वान व्यन्त।नु ४थन असुमारानु (एवं जोइसिय वेमाणियाणं वि) मे०४ ४२ ज्योति भने वैमानिनु ५८ (नवरं ते येयणाए दुविहा पण्णत्ता) विशेषताये छ है येनानी अपेक्षा तेस। ये प्रा२ना हा छ (तं जहा माइमिच्छादिद्वी उववन्नगा य अमाइसम्मदिदी उववन्नगा य) भाथी मिथ्याटि G५पन्न भने समाया सभ्यट-64पन्न (तत्थण जे ते माइमिच्छा दिट्ठी उववन्नगा) तेयोमा रे श्री प्रापन सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy