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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद २१ सू० ४ वैक्रियशरीरभेदनिरूपणम् ६७३ कुमार भवनवासिदेव पश्चेन्द्रिय क्रियशरीरम् ? गौतम ! पर्याप्तकासुरकुमारभवनवासिदेव पश्चेन्द्रियवैक्रियशरीरमपि, अपर्याप्तकासु कुमारभवनवासिदेवपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरमपि, पर्व यावत् स्तनितकुमाराणां द्विगतो भेदः, एवं वाजव्यन्तराणामष्टविधानाम्, ज्योतिष्काणां पञ्चविधानाम्। वैमानिका द्विविधा:-कल्पोपपन्नकाः, कल्पातीताश्च, कल्पोपपन्नका द्वादशविधाः तेषामपि एवञ्चय द्विगतो भेदः, कल्पातीता द्विविधाः-अवेयकाश्च अनुत्तरौपपातिकुमार भवणवासी देव पंचिंदियवेउब्धियसरीरे, अपज्जत्तग असुरकुमार भवणवासीदेव पंचिंदियवे उब्धियसरीरे ?) यदि असुरकुमार भवन वासी देव पंचेन्द्रिय का वैक्रिय शरीर होता है तो क्या पर्याप्त का होता है या अपर्याप्त का? (गोयमा ! पज्जत्तगअसुरकुमारभवणवासीदेवपंचिंदियवेउव्यियसरीरे चि, अप ज्जत्तगअसुरकुमारभवणवासीदेवपंचिंदियवेउब्धियसरीरे थि) हे गौत्तम ! पयांत असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर भी होता है और अपर्याप्तक असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर भी होता है(एवं जाव थणियकुमारा णं दुगओ भेदो) इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमारों के दोनों भेद (एवं वाणमंतराणं अट्ठपिहाणं) इसी प्रकार आठ तरह के वानव्यन्तरों का (जोइसियाणं पंचविहाणं) पांच प्रकार के ज्योतिष्कों का (वेमाणिया दुविहा) वैमानिक दो प्रकार के होते हैं (कप्पोवगा, कप्पातीताय) कल्पोपपन्न और कल्णतीत (कप्पोयगा बारसथिहा) कल्पोपपन्न घारह प्रकार के हैं (तेसिपि एवं चेच दुहओ भेदो) उन के भी इसी प्रकार दो भेद है (कप्पातीता दुविहा) कल्पातीत दो प्रकार के हैं (गेवेज्जगा य अणुत्तरोषवाइया य) ग्रैवेयक और अनुत्तरोपपातिक (जइ असुरकुमार देव पंचिंदिय वेउब्वियसरीरे किं पज्जत्तग असुरकुमार भवणयासी देव पंचिदिय वेउव्वियसरीरे ? अपज्जत्तग असुरकुमार भवणवासी देव पंचिंदिय वेउब्बियसरी? યદિ અસુરકુમાર ભવનવાસી દેવ પંચેન્દ્રિના ક્રિય શરીર હોય છે તે શું પર્યાપ્તના હોય छ । मस्तिन ? गोयमा ! पज्जत्तग असुरकुमारभवणवासी देव पंचिंदिय वेठब्वियसरीरे वि, अवज्जत्तग असुरकुमारभवणवासी देव पंचिंदियवे उब्वियसरीरे वि) हे गौतम ! यस्ता અસુરકુમાર ભવનવાસી દેવ પંચેન્દ્રિયોના વૈક્રિ શરીર પણ હોય છે. અને અપર્યાપ્તક અસુરકુમાર ભવનવાસી દેપ પંચેન્દ્રિયોને વૈક્રિયશરીર પણ હોય છે, (एवं जाव थणियकुमाराणं दुगओ भेदो) से प्रारे यावत् स्तनितभाशा मान्न ले (एवं वाणमंतराणं अविहाणं) ५ ५२ 2418 andu पानव्य तरोना (जोइसियाणं पंच विहाणं) पांय ५४२न न्यातिन (वेमाणिया दुविहा) वैमानि मे प्रजाना हाय छ (कप्पोवगा, कप्पातीताय) पोपपन्न मन पातात (कप्पावगा बारसविहा) पाप. पन्न मा२ ५४२॥ (तेसि वि एवं चेव दुहओ भेदो) तेमना ५५ मे लेह छे (कप्पातीता दुविहा) ४८यातीत ये ना छ (गेवेज्जगाय अणुत्तरोववाइया य) अवेयोना प्र. ८५ श्री प्रशायनासूत्र :४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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