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________________ ५६४ प्रज्ञापनासूत्रे अधः सप्तम तेजोवायुवर्जेभ्यः, सेनापतिरावं गाथापतिरत्नत्वं वार्द्धकिरत्नत्वं पुरोहितरत्नत्वं स्त्रीरत्नत्वञ्च एवञ्चैव, नवरम् अनुनरौपपातिक वर्जेभ्यः अश्वरत्नत्वं हस्तिरत्नत्वं रत्नप्रभासो निरन्तरं यावत् सहस्रारात्, अस्त्येको लभेत, अस्त्येको नो लभेत, चक्ररत्नत्वं छत्ररत्नत्वं चर्मरत्नत्वं दण्डरत्नत्वम् असिरत्नत्वं मणिरत्नत्वम्, काकिणिरत्नत्वम्, एतेपाम् असुरकुमारेभ्य आरभ्य निरन्तरं यावद ईशानाद् उपपात:, शेषेभ्यो नायमर्थः समर्थः ॥सू०८॥ टीका-अथ चक्रवर्तिवादीनि द्वाराणि प्ररूपयितुमाह-'रयणप्पमा पुढविनेरए णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा ?' हे भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी नैरयिकः खलु रत्न (सेणावहरयणत्त) सेनापतिरत्नत्व (गाहावइरयणत) गाथापतिरत्नत्व (वड इरयणतं) बढइरत्नत्व (पुरोहियरयणत्त) पुरोहितरत्नत्व (इत्थिरयणतं)स्त्रीरत्नत्य (च) और (एवं चेव) इसी प्रकार (णवरं अणुत्तरोववाइयवज्जेहिंतो) विशेष अनुत्त रौपपातिक को छोड करके (आसरयणत्तं हत्थिरयणतं) अश्वरत्नपन, हस्तिरत्नपन (रयप्पभाओ) रत्नप्रभा पृथ्वी से (निरंतरं जाव सहस्सारो) लगातार सहस्त्रार तक (अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए नो लभेज्जा) कोइ पाता है, कोई नहीं पाता (चक्करयणतं) चक्ररत्नपन (छत्तरयणतं) छत्ररत्नपन (असिरयणतं) असि रत्नपन (मणिरयणतं) मणिरत्नपन (कागिणिरयणतं) काकिनीरत्नपन (एतेसिणं) इनका (असुरकुमारहितो) असुरकुमारों से (आरद्ध) आरंभ करके (निरंतरं जाव ईसाणाओ उववाओ) लगातार यावत् ईशान कल्प से उत्पाद होता है (सेसेहितो णो इणढे समढे) शेष से यह अर्थ समर्थ नहीं है। टीकार्थ-अब यह प्ररूपणा की जाती है कि किस-किस पर्याय से आए हुए जीव चक्रवर्ती, बलदेव आदि पदवियों के धारक हो सकते हैं ? (सेणावइ रयणतं) सेनापतित्व (गाहावइ रयणतं) मायापति रत्नाव (वड्ढइ रयणतं) ५४२त्नाव (पुरोहियरयणत्तं) पुति २नत (इत्थिरयणतं) स्त्रीरत्नर (च) अने (एवं चेव) ये ४ारे (णवरं अगुत्तरोववाइय वज्जेहितो) विशेष अनुत्तरी५५तिने छीन (आसरयणतं हत्थिरयणतं) ५३२ पा स्तिन पा (रयणप्पभाओ) २९नमा पृथ्वीथी (निरंतरं जाव सहस्सारो) वि२त सहस्त्रार सुधी (अत्थेगइए लभेजना, अत्थेगईए नो लभेज्जा) કે પામે છે કેઈ નથી મેળવવા (चक्करयणत्तं) ५४२पा (छत्तरयणतं) ७१२नपा (चम्मरयणतं) यमरत्न पा (दंडरयणतं) ४२त्न. पा. (असिरयणतं) मसि २ना मणिरयणतं) म नपा (कागिजिरयणतं) नी रत्नपा (एतेसिणं) मेमना (असुरकुमारेहिंतो) सु२माथी (आरद्धं) मान ४शन (निरंतरं जाव ईसाणओ उबवाओ) निरन्तर यात शान ६५थी पाई याय छे (सेसेहितो णो इणद्वे सम8) शेषयी मा मथ° समय नया ટીકાર્થ-હવે એ કરૂણા કરાય છે કે, ક્યા કયા પર્યાય થી આવેલે જીવ ચક્રવતી श्री प्रज्ञापन। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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