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________________ प्रबोधिनी टीका पद २० सू० ६ द्वीन्द्रियोत्पादनिरूपणम् ५३७ ज्जितए ? गोयमा ! णो इणट्टे समट्ठे, एवं असुरकुमारेसु वि, जाव थणियकुमारेसु, एगिंदियविगलिदिएसु जहापुढवीकाइआ, पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा नेरइए, बाणमंतरजोइसिय वेमाणि -- एसु जहा नेरइएसु उववज्जइ पुच्छा, भणिया एवं मणुस्से वि वाणमंतरजोइसिय वैमाणिएसु जहा असुरकुमारे । ॥ सू० ६ ॥ " छाया - द्वीन्द्रियः खलु भदन्त ! द्वीन्द्रियेभ्योऽनन्तरमुद्वृस्य नैरयिकेषु उपपद्येत ? गौतम ! यथा पृथिवीकाकाः, नवरं मनुष्येषु यावद् मनः पर्यवज्ञानमुत्पादयेत्, एवं त्रीन्द्रियातुरिन्द्रिया अपि यावद् मनः पर्यवज्ञानमुत्पादयेत् यः खलु मनः पर्यवज्ञानमुत्पादयेत् स खलु केवलज्ञानमुत्पादयेत् ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्योऽनन्तरमुद्दृश्य नैरयिकेषु अनन्तरमुपपद्येत ? गौतम ! अस्त्येकः उपपद्येत, अस्त्येको नो उपपद्वीन्द्रियादि वक्तव्यता शब्दार्थ - (बेईदिए णं भंते बेइंदिए हिंतो अनंतरं उब्वहित्ता) भगवन् ! द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियों से अनन्तर उद्वर्त्तन करके (नेरइएस उववज्जेज्जा) नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? (गोयमा ! जहा पुढविकाइआ ) गौतम ! जैसे पृथ्वीकायिक (नवरं) विशेष (मणुस्से) मनुष्यों में उत्पन्न हो सकता है (जाव मणपज्जवनाणं उपाडेज्जा) यावत् मनः पर्यवज्ञान प्राप्त करता है ( एवं तेइंदिया) इसी प्रकार त्रीन्द्रिय (चउरिंदिया वि) चौइन्द्रिय भी (जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा) यावत् मनः पर्यवज्ञान प्राप्त करता है (जे णं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा) जो मनःपर्यव ज्ञान प्राप्त करता है (से णं केवलनाणं उप्पाडेज्जा) वह केवलज्ञान प्राप्त करता है क्या ? (गोयमा ! णो इण्डे समट्ठे) गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । (पंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो) हे भग દ્વીન્દ્રિયાદ્વિ વક્તવ્યતા शब्दार्थ-(बेईदिएणं भंते ! बेइदिएहिंतो अनंतरं उवट्टित्ता) हे भगवन् ! द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियाथी अनन्तर उवर्तन हरीने (नेरइएस उववज्जेज्जा) नैरािभां उत्पन्न थाय छे ? (गोयमा ! जहा पुढविकाइआ ) हे गौतम! नेवा पृथ्वीायिक (नवर) विशेष (मणुस्सेसु) भनुष्योभां उत्पन्न थर्ध शडे छे (जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा) यावत् भनःपर्यवज्ञान आप्त १रे छे (एवं तेइंदिया ) मे अठारे त्रीन्द्रिय ( चउरिंदिया वि) यतुरिन्द्रिय य (जाव मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा) यावत् भनः पर्यवज्ञान प्राप्त उरे छे (जेणं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा) ने मनःपर्यवज्ञान प्राप्त पुरे छे (सेणं केवलनाणं उप्पाडेज्जा) ते विसज्ञान प्राप्त ४२ छे ? (गोयमा णो इणट्टे समट्टे) हे गौतम! आ अर्थ समर्थ नथी. ( पंचिदिय तिरिक्खजोणिएणं भंते! पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो ) हे भगवन् ! यथे. प्र० ६८ श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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