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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १८ सू० ९ सम्यक्त्ववतां सम्यक्त्वकालनिरूपणम् पर्यवसितः, यस्तावत् सम्यक्त्वं प्राप्स्यति सोऽनादिसपर्यवसितः, यस्तु सम्यक्त्वं प्राप्यपुनरपि मिथ्यात्वं प्राप्स्यति स सादिसपर्यव सितो व्यपदिश्यते 'तत्थणं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहाणेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं अणतं कालं' तत्र-अनाद्यपर्यवसित-अनादिसपर्यवसितसादिसपर्ययसिताना मध्ये खलु योऽसौ सादिसपर्यवसितो भवति स जघन्येन अन्तमुहूर्तम् तदनन्तरं कस्यापि पुनः सम्यक्त्वप्राप्त : उत्कृष्टेन अनन्तं कालं यावत् सादिसपर्यवसितो मिथ्यादृष्टिः मिशादृष्टित्वपर्यायविशिष्टः सन् निरन्तरतया अवतिष्ठते, तमेवानन्तकालं द्विधा प्रतिपादयति-'अगंताओ उस्सप्पिणिो सपिणो श्री कालओ' अनन्ताः उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः-कालापेक्षयाऽवसेयाः 'खेत्तो अबझं पोग्गलपरियटें देखणं' क्षेत्रतः क्षेत्रापेक्षया अपार्द्धः पुद्गलपरिवतों देशोनोऽवसेयः, अत्र क्षेत्रपदोपादानात् क्षेत्रपुराल परावर्त एव परिग्रहीतव्या नतु द्रव्यपुद्गलपरावर्तादयोऽपि, एवमेव पूर्वोत्तरत्रापि विज्ञेयम्, तक मिथ्यादृष्टि ही बना रहेगा, जैसे अभव्य जीव, दूसरा अनादि सान्त अर्थात् जो अनादि काल से मिथ्यादृष्टि तो है मगर भविष्य में जिसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी तीसरा सादि सान्त मियादृष्टि अर्थात् जो सम्यक्त्व को प्राप्त करने के पश्चात् फिर मिथ्यादृष्टि हो गया है और भविष्य में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करेगा इन अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त मिथ्यादृष्टियों में जो सादि सान्त मिथ्यादृष्टि है, वह जघन्य अन्तर्मुहर्त तक मिथ्यादृष्टि रहता है। अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि रहने के बाद उसे पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है । उत्कृष्ट अनन्त काल तक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है और अनन्त काल व्यतीत होने के पश्चात् उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है। उस अनन्त काल का दो प्रकार से प्रतिपादन करते हैं-काल की अपेक्षा अनन्त उत्सपिणियां एवं अनन्त अवसरिणियां समझना चाहिए । क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्ध पुद्गलपरावर्तन जानना चाहिए। यहां क्षेत्र पद को ग्रहण करने से क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन ग्रहण करना चाहिए, द्रव्यपुद्गलपरावर्तन आदि नहीं। यही बात पीछे और જ બની રહેશે, જેમ અભવ્ય જીવ, બીજા અનાદિયાન્ત અર્થાત્ જે અનાદિકાળથી મિથ્યાષ્ટિ તે છે પણ ભવિષ્યમાં જેને સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ થશે. ત્રીજા સાદિસાન્ત મિથ્યાદ્રષ્ટિ અર્થાત્ જે સમ્યકત્વને પ્રાપ્ત કર્યા પછી પાછા મિથ્યાષ્ટિ બની ગયા છે અને ભવિષ્યમાં ફરી સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત કરશે. આ અનાદિઅનન્ત, અનાદિસાન્ત અને સાદિસાન્ત મિથાષ્ટિમાં જે સાદિસાન્ત મિથ્યાદષ્ટિ છે, તે જઘન્ય અત્તમુહૂત સુધી મિથ્યાદ્રષ્ટિ રહે છે. અન્તર્મુહૂર્ત સુધી મિથ્યાદૃષ્ટિ રહ્યા પછી તેને ફરી સમ્પક-વની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે. ઉત્કૃષ્ટ અનન્તકાળ વ્યતીત થયા પછી તેને સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત થાય છે. આ અનન્ત કાળ કાળની અપેક્ષાથી અનન્ત ઉત્સપિણિ તેમજ અનન્ત અવસર્પિણ સમજવી જોઇએ. ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી દેશોન અપાઈ યુગલપરાવર્તન જાણવાં જોઈએ. અહીં ક્ષેત્રપદને બહણ श्री. प्रशानसूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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