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________________ ४०२ प्रज्ञापनासूत्रे , सादिको वा पर्यवसितः यावत् अपार्द्ध: पुद्गलपरिवर्ती देशोनः, क्रोधकषायी खलु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! जघन्येन उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तम्, एवं यावद् मानमाया कषायी, लोभकषायी खलु भदन्त ! लोभकषायी इति पृच्छा, गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तम्, अकषायी खलु भदन्त ! अकषायी इति कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! अकषायी द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - सादिको वा अपर्यवसितः, सादिको वा सपर्यवसितः, तत्र खलु यः स सादिकः पर्यवसितः स जघन्येन एकं समयम् उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तम्, द्वारम् ७ ॥ ०७ ॥ : साथी तिविहे पण्णत्ते) हे गौतम ! सकषायी जीव तीन प्रकार के कहे हैं (तं जहा ) वे इस प्रकार (अणादीए या अपज्जवसिए) अनादि अनन्त (अणादीए वा सपज्जयसिए) अनादि सान्त (सादीए वा सपज्जवसिए) अथवा सादि सान्त ( जाव अवढं पोग्गल परियहं देणं) यावत् देशोन अपार्ध पुदगल परावर्त्तन ( कोह कसाई णं भंते! पुच्छा ?) हे भगवन ! क्रोधकषायी संबंधी प्रश्न ? (गोयमा ! जहणेणं उक्कोसेणं अंतो मुहुत्तं) हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त्त तक ( एवं जाव माणमायाकसाई) इसी प्रकार यावत् मानकषायी माया कषायी (लोभकसाई णं भंते ! लोभकसाइ त्ति पुच्छा ?) हे भगवन् ! लोभकषायी कितने काल तक लोभ कषायी रहता है, ऐसा प्रश्न ? (गोयमा ! जहण्णेणं एकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ) हे गौतम ! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ( अकसाई णं भंते ! अक्साइ त्ति कालओ केवच्चिरं होइ १) हे भगवन् ! अकषायी कितने काल तक अकषायो रहता है ? (गोयमा ! अकसाई दुविहे पण्णत्ते) हे गौतम! अकषायी दो प्रकार के कहे हैं (तं जहा - सादीए वा अपज्ज हे गौतम! सम्षायी ऋणु प्रहारना ह्या छे (तं जहा) तेथे या प्रारे छे (अणादीए वा अपज्जवसिए) अनाहि अनन्त (अणादीए वा सपज्जवसिर) मनाहि सांत (सादीए वा सपज्जवसिए) अथवा साहि सान्त ( जाव अवढं पोग्गलपरियहं देणं) यावत् देशान અપારા પુદ્ગલપરાવર્તન. (कोहकसाई णं भंते! पुच्छा हे भगवान् ! धदुषायी सम्बन्धी प्रश्न ( गोयमा ! जहण्गेणं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं) हे गौतम ! धन्य अने उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त सुधी ( एवं जाय माणमाया कसाई) से प्रहारे यावत् भानउषायी भने भायाषायी (लोभकसाईणं भंते ! लोभकसाइत्ति पुच्छा ! ) भगवन् ! बोलावायी डेंटला समय सुधी बोलषायी रहे छे ? वा प्रश्न (गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुर्त्त) हे गौतम! धन्य ! समय, उत्सृष्टमन्तर्मुहूर्त. (अकसाई णं भंते! अकसाईत्ति कालओ केबच्चिरं होइ १) हे भगवन् ! अषायी डेटसा आज सुधी अनुषायी रहे छे ? (गोयमा ! अकसाई दुविहे पण्णत्ते) डे गौतम ! अषायी मे अारना उद्या छे (तं जहा सादीए वा अपज्जवसिए सादीए वा सपज्जयसिए) तेथे भा श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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