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________________ ३६८ प्रज्ञापनासत्र तोऽसंख्येया लोकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकः सूक्ष्माकायिकः सूक्ष्मतेजस्कायिका, सूक्ष्म वायुकायिका, सूक्ष्मवनस्पतिकायिकः सूक्ष्मनिगोदोऽपि जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन असंख्येयं कालम्, असंख्येया उत्सणिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतः असंख्येया लोकाः, सूक्ष्मापर्याप्तकः खलु भदन्त ! सूक्षणापर्याप्तक इति पृच्छा, गौतम ! जघन्येन उत्कृष्टेन अन्तर्मुहर्तम्, पृथिवीकायिकाकायिकतेजस्कायिकवायुकायिकवनस्पतिकायिकानाश्च एवञ्चैव, पर्याप्तकानामपि पवञ्चैव, यया औधिकानाम्, बादरः खलु भदन्त ! बादर इति कालतः काल तक (असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ) कालसे असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी (खेत्तओ असंखेज्जा लोगा) क्षेत्र से असंख्यात लोक (सुहमपुढविकाइए) सूक्ष्मपृथ्वोकायिक (सुहुमअउकाइए) सूक्ष्म अप्कायिक (सुहुमतेउकाइए) सूक्ष्म तेजस्कायिक (सुहमयाउकाइए) सूक्ष्मवायु कायिक (सुहमवणप्फइकाइए) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक (सुहमनिगोदे वि) सूक्ष्म निगोद में भी (जहण्णेणं अंतोमुहत्तं) जघन्य अन्तर्मुहूर्त (उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं) उत्कृष्ट असंख्यात काल (असंखिज्जाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीभो कालओ) असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल से (खेत्तओ असंखेज्जा लोगा) क्षेत्र से असंख्यात लोक (सुहमअपज्जत्तए णं भंते ! सुहम अपज्जत्तए त्ति पुच्छा) हे भगवन् ! सूक्ष्म अपर्याप्त सूक्ष्म अपर्यास पने में, इत्यादि प्रश्न (गोयमा ! जहणेणं उक्कोसेणं अंतो मुहत्तं) हे गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहत (पुढविकाइय-आउकाइयतेउकाइय वाउकाइय-वणफहकाइयाण सुहुमनिगोयाणं प एवं चेय) अपर्याप्त पृथ्वी कायिक, अप्कायिक, तेजस्कापिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक सूक्ष्म निगोदों का कथन इसी प्रकार (पज्जत्तियाण वि एवं चेव) पर्यास कों का भी कालओ) पथा असण्यात उत्सपिणी असपि पन्त (खेत्तओ असंखेज्जा लोगा) ક્ષેત્રથી અસંખ્યાતલાક. ___ (सुहमपुढक्कि इए) सूक्ष्मपृथ्वी ५४ (सुहुमआउकाइए) सूक्ष्भमायि४ (सुहुमतेउकाइए) सूक्ष्मते४२४यि (सुहुमवाउकाइए) सूक्ष्भवायुय: (सुहुमवणप्फइकाइए) सूक्ष्भवन२५निय (सहुननिगोदे वि) सूक्ष्मनियामा ५५] (जहण्णेणं अंतोमुहुत्त) ४धन्य अन्तभु इत (उक्कोसेणं असंखेनं कालं, ४५८ २५सध्यातास (असंखिज्जाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओकालओ) सjि - असमियी (खेत्तओ असंखेज्जा लोगा) क्षेत्रका અસંખ્યાતલોક. (सुहुमअपजत णं भंते ! सुहुमअपज्जत्तएत्ति पुच्छ। ?) 3 मापन् ! सूक्ष्म५५यति, सूक्ष्म अपर्याप्तमा त्या प्रश्न (गोयमा ! जहण्णेणं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त) हे गौतम ! धन्य भने ge मन्तभुइन (पुढविकाइए - आउकाइए-तेउकाइए-वाउकाइए-वणाफइकाइयाण सुहुमनिगोयाणं य एवं चेव) १५यति पीय, अ५४॥५४, ०४३४५४, वायु४ि मने पनपतियिमानानुन 2004 सभा (पज्जतियाण वि एवं चेब) Mulasag 541 શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૪
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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