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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १७ सू० २२ लेश्यापरिणमननिरूपणम् २९९ तत्राता अवष्वष्कते उत्वष्वष्कते वा, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-यावद नो परिणमति ! प्रज्ञापनायां भगवत्यां लेश्यापदे पञ्चमोद्देशः ॥ सू. २२ ॥ टीका-चतुर्थों देशके कृष्णादिलेश्यानामपबहुत्वं प्ररूपितं सम्प्रति तासामेव लेश्यानां वैशिष्टयं प्रतिपादयितुं पञ्चमोद्देशक प्रारभते-'कइणं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ?' हे भदन्त ! कति खलु लेश्याः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'छलेस्साओ पण्णत्ताओ षडूलेश्याः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा-कण्हलेस्सा जाव सुकलेस्सा' तद्यथा-कृष्णलेश्या यावदनीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पदमलेश्या, शुक्ललेश्या, गौतमः पृच्छति-'से नृणं भंते ! कण्हले स्सा नीललेस्सं पप ता रूवत्ताए ता वण्णत्ताए ता गंधत्ताए ता रसत्ताए ता फासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ ?' हे भदन्त ! तत्-अथ नूनम्-किम् कृष्णलेश्या-कृष्णलेश्याद्रव्याणि नीललेश्यां-नीललेश्याद्रव्याणि प्राप्य तद्रूपतया-नीलले श्याद्रव्यस्वभावतया तथैवाह-तद्वर्णतया--नीलले श्याद्रव्यवर्णतया, तद्गन्धतया-नीललेश्याद्रव्यगन्धतया, इस हेतु से ऐसा कहा जाता है (जाव णो परिणमइ) यावत् परिणत नहीं होती 'पप्णवणाए भगवइए लेस्सापए पंचमुद्देसो' भगवती प्रज्ञापना के लेश्यापद में पांचवां उद्देशक समाप्त टोकार्थ-चतुर्थ उद्देशक में लेश्याओं के अल्प बहुत्व का निरूपण किया गया है, अब उन्हीं लेश्याओं की विशिष्टता प्रतिपादन करने के लिए पांचवां उद्देशक प्रारंभ किया जाता है गौतमस्वामी-हे भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ? भगवान्-हे गौतम ! लेश्याएं छह कही गई हैं, वे इस प्रकार-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पालेश्या और शुक्ललेश्या। गौतमस्वामी-हे भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त हो कर ते शुसवेश्या छे ते पद्मश्या नथी (तत्थ गया) त्या २७सी (ओसक्कइ) ५५सपा ४२ छ (से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ) गौतम ! से उतुथी सेम उपाय छे (जाव णो परिणमइ) ચાવતું પરિણત નથી થતી. पण्णवणाए भगवइए लेस्सापए पंचमुद्देसो (ભગવતી પ્રજ્ઞાપનાના વેશ્યા પદમાં પાંચમો ઉદ્દેશક સમાસ) ટીકાઈ–ચતુર્થ ઉદ્દેશક્યાં લેશ્યાઓના અલભ્ય અધિકત્વનું નિરૂપણ કરાયું છે હવે તેજલેશ્યા બેની વિશિષ્ટતા પ્રતિપાદન કરવાને માટે પાંચમે ઉદ્દેશક પ્રારંભ કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન્! લેશ્યાઓ કેટલી કહેલી છે? શ્રી ભગવાન - ગૌતમ! લેશ્યાઓ છ કહેલી છે, તે આ રીતે-કૃષ્ણલેશ્યા, નીલેશ્યા, કાપતલેશ્યા, તેજલેશ્યા, પદુમલેશ્યા અને શુકલેશ્યા. શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન ! શું કૃષ્ણલેશ્યા, નીલશ્યાને પામીને તેના જ સ્વરૂપ, તેનાજ श्री. प्रशानसूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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