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________________ प्रबोधिनी टीका पद १७ सू० १७ लेश्यायाः वर्ण निरूपणम् २२९ टीका-पूर्व लेश्या परिणामलक्षणाधिकारः मरूपितः, सम्प्रति लेश्याया वर्णाधिकारं प्ररूपयितुमाह- 'कण्हलेस्सा णं भंते ! वण्णेणं केरिसिया पण्णत्ता?' हे भदन्त ! कृष्णलेश्या खलु वर्णेन कीदृशी प्रज्ञप्ता ? भगवानाह - 'गोयमा !" हे गौतम ! 'से जहानामए जीमूते इवा' तत्-अथ यथा नाम इति दृष्टान्ते जीमूतः - मेघो वर्षाप्रारंभकालिकः पयोद इत्यर्थः जीवनं जलं मूत्तं बद्धमनेन इति जीमूतः - जलधारकः तस्यैव प्रायोऽतिकालिमदर्शनात् तत्सदृशी कृष्ण द्रव्यात्मिका लेश्या कृष्णलेश्या भवति अत्र कृष्णलेश्यापदेन कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि उच्यन्ते तेषामेव वर्णादि संभवात् न पुनः कृष्णद्रव्यजनिता भावरूपा कृष्णलेश्या, तस्या भावस्वरूपतया वर्णाद्ययोगात्, अत्र इति शब्देन उपमानभूतवस्तुनाम परिसमाप्तिद्यत्यते, कही जाती है (उस्सा लोहिए णं वण्णे णं साहिज्जति) तेजोलेश्या लाल वर्ण से कही जाती है (पम्हलेस्सा हालिएणं बन्नेणं साहिज्जइ) पद्मलेश्या पीले वर्ण से कही जाती है (सुक्कलेस्सा सुकिल्लएणं वन्नेणं साहिज्जति) शुक्ललेश्या शुक्लवर्ण द्वारा कही जाती है टोकार्थ - इससे पूर्व लेइया के परिणाम का द्वार कहा गया है। अब लेश्या का वर्णाधिकार कहा जाता है, जिसमें छहों लेश्याओं के वर्ण का निरूपण किया जाएगा । गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वर्ण की अपेक्षा से किस प्रकार की कही है ? भगवान् उत्तर देते हैं- हे गौतम! जैसे कोई जीमूत हो अर्थात् वर्षारंभ के मेघ हो (जीमून का अर्थ है जीवन अर्थात् जल को धारण करने वाला - बादल) क्योंकि वर्षारंभ कालिक मेघ में बहुत कालिमा देखि जाती है। कृष्णलेश्या उसके समान वर्ण वाली होती है। यहां कृष्णलेश्या का अर्थ कृष्णलेरपा (तेउलेस्सा लोहिएणं वण्णेणं साहिज्जति) तेलेलेश्या सासव थी उडेपामेली छे (पम्हलेस्सा हालिएणं वण्णेणं साहिज्जइ) पहूभलेश्या चीजाव थी डेसी छे (सुक्कलेरसा सुक्किल्लए णं वण्णेणं साहिज्जति) शुम्हासेश्या शुम्भवार्थ द्वारा उहेसी छे ટીકા-આનાથી પહેલા પૂલેશ્યાનું પરિણામ દ્વાર કહેવું છે. હવે લેશ્યાના વર્ષોંધિકાર કહેવાય છે. જેમાં છએ લેશ્યાઓના વર્ણનું નિરૂપણ કરાશે. શ્રી ગૌતમ સ્વામી પ્રશ્ન કરે છે-હે ભગવાન કૃષ્ણલેશ્યા વણુની અપેક્ષાએ કેવા પ્રકારની કહેલી છે ? શ્રી ભગવાન્ ઉત્તર આપે છે-હે ગૌતમ ! જેમ કેાઈ જીમૂત હોય અર્થાત્ વર્ષાતુના અર’ભને! મેઘ હેાય (જીમૂતના અ` જીવન અર્થાત્ જળને ધારણ કરનાર-વાદળ) કેમકે વર્ષોં રભકાલિક મેઘમાં ઘણિકાલિમા જેવાય છે) કૃષ્ણલેશ્યા તેના સમાન વણુ વાળી હાય આહી' કૃષ્ણલેશ્યાના અ` કૃષ્ણઙેશ્યાને ચગ્ય દ્રવ્ય સમજવુ જોઈએ. કેમકે તેમાં જ श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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