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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १७ सू० १५ लेश्याश्रयज्ञान निरूपणम् २०१ मनः पर्यवज्ञानेषु भवेत्, चतुर्षु भवन आभिनिवोधिकश्रुतावधिमनः पर्यवज्ञानेषु भवेत्, एवं यावत् - पद्मलेश्यः, शुक्ललेश्यः खलु भदन्त ! जीवः कतिषु ज्ञानेषु भवेत् ? गौतम ! द्वयोर्वा त्रिषु वा चतुर्षु वा भवेत्, द्वयोर्भवन् आभिनिबोधिकज्ञाने एवं यथैव कृष्णलेश्यानां तथैव भणितव्यम् यावत् चतुर्भिः, एकस्मिन् ज्ञाने भवेत्, एकस्मिन् केवलज्ञाने भवेत्, प्रज्ञापनायां भगवत्यां लेश्यापदे तृतीय उद्देशकः समाप्तः ।। सू० १५ ।। ओहिनाणेसु होजा) तीन में होतो आभिनियोधिक, श्रुत और अवधिज्ञान में हो (अहा ति होमाणे आभिणिवोहियसुयनाणमणपजयनाणेसु होज्जा) अथवा तीन में होतो आभिनिबोधिक, श्रुत और मनःपर्यवज्ञान में हो (चउ होमाणे आभिणिबोहियसुयओहिमणवज्जवनाणेसु होज्जा) चार में होतो आभिनियोधिक, श्रुत, अवधि और मनःपर्यवज्ञान में हो ( एवं जाय पम्हलेस्से इसी प्रकार पद्मलेश्या वाले जीव को भी समझ लेवे । (सुक्कलेस्से णं भंते! जीवे कइसु नाणेसु होज्जा ? ) हे भगवन् ! शुक्ललेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? (गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु या होज्जा) हे गौतम! दो, तीन अथवा चार में होता है (दोसु होमाणे आभिणिबोहियनाण एवं जहेय कण्ह लेस्साणं तहेव भाणियव्यं) दो होतो आभिनि वोधिक और श्रुत में, इस प्रकार कृष्ण लेश्या वालों की तरह कहना चाहिए (जाव चउहिं) यावत् चार ज्ञानों में (एगंसि होज्जा) एक ज्ञान में होता है तो ( एगंमि केवलनाणे होज्जा) एक में केवलज्ञान में होता है (yoraणा भगवईए लेस्साए तइओ उद्देसओ समत्तो) प्रज्ञापना भगवती के लेापद में तीसरा उद्देशक समाप्त) नाणे होज्जा) शुभां होय तो मालिनीमेोधिङ, श्रुत भने अवधिज्ञानभां होय (अहवा तीसु होमाणे आभिनिबोहिय सुयनाण मणपज्जवनाणेसु होज्जा) अथवा शुभां होय तो मालि. नामोधि४, श्रुत भने भनः पर्यवज्ञानभां होय छे (चउसु होमाणे आभिणिबोहियसुयओहिमणपज्जव नाणेसु होज्जा) यारमां होय तो मालिनी।धि४, श्रुत, अवधि भने भनःपर्यवज्ञानभां होय ( एवं नाव पहले से) भेट अारे पद्मसेश्यावाणा भवने पशु समवा. (सुक्कलेस्सेगं भंते! जीवे कइसु नाणेसु होज्जा) हे भगवन् ! शुउससेश्यावाजा ल डेंटला ज्ञानाभां होय छे ? (गोयमा ! दोसु वा तिसु वा, चउसु वा, होज्जा) हे गौतम ! मे त्र अथवा यारमां होय छे (दोसु होमाणे आभिणिबोहिनाण एवं जहेव कण्हलेस्साणं तहेव भाणियव्यं) मेभां होय तो मालिनीमधि, भने श्रुतज्ञानमां, से प्रारे द्रुष्णसेश्यापाजायोनी नेम उहेवु लेोध्यो (जाव चउहिं) यावत् यार ज्ञानभां (एगंसि होज्जा ) थे ज्ञानभां होय तो ( एगमि केवलनाणे होज्जा) मां ठेवणज्ञान होय छे. ( पण्णवणाए भगवईए लेस्सापए तइओ उसओ समत्तो (પ્રજ્ઞાપના ભગવતીના લેથા પદમાં ત્રીજો ઉદ્દેરાજ સમાપ્ત) प्र० २६ श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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