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________________ प्रमेययोधिनी टीका पद १७ मू० १४ नैरयिकावधिज्ञेयक्षेत्रपरिमाणनिरूपणम् १९१ सर्वतः समन्तात् समभिलोकेत, ततः खलु स पुरुषः पर्वतगतं धरणितलगतश्च पुरुष प्रणिधाय सर्वतः सरन्तात् समभिलोकमानो बहुतरकं क्षेत्रं जानाति, बहुतरक क्षेत्रं पश्यति यावद् वितिमिरतरकं पश्यति, तत् तेनार्थेन गौतम ! एव मुच्यते-कापोतलेश्यः खलु नैरथिको नीललेश्यं नैरयिकं प्रणिधाय तच्चैव यावद वितिमिरतरक क्षेत्रं पश्यति ॥ सू० १४॥ टीका-अथ कृष्णलेश्यादि नैरयिकाणामवधिज्ञानदर्शनस्य विषयभूतं क्षेत्रपरिमाणतारतम्यं प्ररू पयितुमाह-'कण्हलेस्सेणं भंते ! नेरइए कण्हलेस्त नेरइयं पणिहाए ओहिणा सबओ समंता सममिलोएमाणे केवइयं खेत्तं जाणइ केवइयं खेत्तं पासइ ?' हे भदन्त ! कृष्णलेश्यः खलु कश्चित् नैरयिकः परं कृष्णलेश्यं नैरयिकं प्रणिधाय-अपेक्ष्य कृष्णलेश्य नैरयिकान्तरापेक्षयेत्यर्थः अव(दो वि पाए) दोनों पैर (उच्चाविया वेइत्ता) ऊंचा कर के (सधओ समंता) सब दिशा-विदिशाओं में (समभिलोएज्जा) देखे (तए णं से पुरिसे) तब वह पुरुष (पव्वयगयं धरणितलगयं च पुरिसं पणिहाय) पर्वत पर रहे और भूतल पर रहे पुरुष की अपेक्षा (सव्वओ समंता समभिलोएमाणे) सब दिशा-विदिशाओं में देखता हुआ (बहुतरगं खेत्तं जाणइ बहुतरगं खेत्तं पासइ) बहुतर क्षेत्र को जानता-देखता है (जाव वितिमिरतरगं पासइ) निर्मलतर देखता है (से तेणटे णं गोयमा ! एवं वुच्चइ) इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है (काउलेस्से णं नेरइए नीललेस्सं नेरइयं पणिहाय तं चेव (कापोतलेश्या वाला नारक नील. लेश्या वाले नारक की अपेक्षा, इत्यादि वही पूर्वोक्त (जाव वितिमिरतरगं खेत पासइ) यावत् निर्मलतर क्षेत्र को जानता है। टीकार्थ-अब कृष्णलेश्या आदि वाले नारकों के अवधि और दर्शन के विषयभूत क्षेत्र के परिमाण की तरतमता की प्ररूपणा की जाती है गौतमस्वामी-हे भगवन् ! एक कृष्णलेश्या वाला नारक दूसरे कृष्ण वाले शामामा (समभिलोएज्जा) हेमे (तएणं से पुरिसे) त्यारे ते ५३५ (पव्ययगयं धरणितल गयं च पुरिस पणिहाय) ५ ५२ २७ भने भूतत ५२ २हेस ३५नी अपेक्षाये (सव्वओ समता समभिलोएमाणे) अधी शिवशामा २३a (बहुतरगं खेत्तं जाणइ बहतरगं खेत्तं पासई) मईतर क्षेत्रात तणे हे छ (जाव वितिमिरतरगं पासइ) तिर हे छे (से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं, वुच्चइ) मे २0 गौतम ! सेभ उपाय छे (काउलेस्सेणं नेरइए नील लेस्सं नेरइयं पणिहाय तं चेव) पातश्या ना२४ नाशवाणा न॥२४ी अपेक्षाये, त्यात ते पूर्वरित (जाव वितिमिरतरगं खेत्तं पासइ) यावत् निर्भरत क्षेत्रने तो छ. ટકાથ–હવે કૃણલેશ્યા આદિવાળા નારકની અવધિ અને દર્શનના વિષયભૂત ક્ષેત્રના પરિમાણુની તરતમતાની પ્રરૂપણ કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન્! એક કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારક બીજા કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકની અપેક્ષાએ અવધિ દ્વારા સમસ્ત દિશાઓમાં અને સમસ્ત વિદિશાઓમાં श्री. प्रशान। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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