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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ९ सू. ३ मनुष्ययोनिविशेषनिरूपणम् __८१ संमूच्छिमपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकानां संमूच्छिममनुष्याणाश्च विवृतयोनिकत्वात् , तेभ्योऽपि'अजोणिया अणंतगुणा' अयोनिका अनन्तगुणा भवन्ति सिद्धानामयोनिकानामनन्तत्वात् , तेभ्योऽपि-'संवुड जोणिया अणतगुणा' संघृतयोनिका अनन्तगुणा भवन्ति, वनस्पतीनां संवृतयोनिकत्वात् तेषाश्च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ॥ सू० ३ ॥ मनुष्ययोनि विशेषवक्तव्यता ___मूलम्-कइविहाणं भंते ! जोणी पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता तं जहा-कुम्मुण्णया, संखावत्ता, वंसीपत्ता, कुम्मुण्णयाणं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं, कुम्मुण्णयाएणं जोणीए उत्तमपुरिसागन्भेवकमंति, तं जहा-अरहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, संखावत्ता णं जोगी इत्थी रयणस्स, संखावत्ताए जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला य वकमंति, विउ कमंति, चयंति, उवचयंति, नो चेव णं णिप्फजंति, वंसीपत्ताणं जोणी पिहजणस्स, वंसीपत्ताए णं जोणीए पिहजणे गम्भे वकमंति, इति पण्णवणाए नवमं जोणीपदं समत्तं ॥ सू० ४ ॥ ___छाया-कतिविधाः खलु भदन्त ! योनिः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कूर्मोन्नता, शङ्खावर्ता, वंशीपत्रा, कूर्मोन्नता खलु योनिः उत्तमपुरुषमातणां कूर्मोन्नयोनिक होते हैं । विवृत योनिकों की अपेक्षा अयोनिक अनन्तगुणा अधिक हैं, क्यों कि सिद्ध जीव अयोनिक हैं और वे अनन्त हैं। अयोनिकों की अपेक्षा संवृतयोनिक अनन्तगुणा हैं, क्यों कि वनस्पतिकायिक संवृतयोनिक हैं और वे सिद्धों से भी अनन्तगुणा अधिक हैं ।सू०३॥ मनुष्ययोनिविशेषवक्तव्यता शब्दार्थ-(कइविहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता ?) भगवन् ! योनि कितने प्रकार की है ? (गोयमा! तिविहा जोणी पण्णत्ता) गौतम ! तीन प्रकार की योनि कही है (तं जहा) वह इस प्रकार है (कुमुन्नया) कूर्मोन्नता (संखावत्ता) शंखाવિવૃત નિકેની અપેક્ષાએ અનિક અનન્તરણ અધિક છે કેમકે સિદ્ધ જીવ અનિક છે અને તેઓ અનન્ત છે, અનિકેની અપેક્ષાએ સંવૃત યનિક અનન્તગણું છે, કેમકે વનપતિકાયિક સંવૃત યુનિક છે અને તેઓ સિદ્ધોથી પણ અનન્તગણ છે . ૩ મનુષ્ય નિ વિશેષ વક્તવ્યતા शहाथ-(कइविहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता ?) मावन् ! योनि टा प्र४।२नी छ ? (गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता?) गौतम ! ३ ५४२नी योनि ही छ (तं जहा) ते 21 प्रा२ (कुमुन्नया) भेन्निता (संखावत्ता) भावता (वंसीपता) शीपत्र (कुमुण्णया प्र० ११ श्री प्रशान। सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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