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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १५ सू. १० इन्द्रियादिनिरूपणम् ____७४१ मनुष्य सर्वार्थसिद्ध वर्जितानां स्वस्थाने बद्धानि असंख्येयानि, परस्थाने बद्धानि न सन्ति, वनस्पतिकायिकानां बद्धानि अनन्तानि, मनुष्याणां नैरयिकत्वे अतीतानि अनन्तानि, वद्धानि न पुरस्कृतानि अनन्तानि, एवं यावद् अ॒वेयकदेवत्वे, नवरं स्वस्थाने अतीतानि अनन्तानि बद्धानि स्यात् संख्येयानि, स्यात् असंख्येयानि, पुरस्कृतानि अनन्तानि,मनुष्याणां भदन्त ! विजयवैजयन्तजयन्तापराजितदेवत्वे कियन्ति द्रव्येन्द्रियाणि अतीतानि? संख्येयानि, स्यात् असंख्येविजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवत्ते सव्वट्ठसिद्धगदेवत्तेय) विशेष वनस्पतिकायिकों की विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित देवपने और सर्वार्थसिद्ध देवपने (पुरे. क्खडा अणंता) आगामी अनन्त हैं। ___ (सम्वेसि मणूस सम्वट्ठसिद्धगवज्जाणं सट्टाणे बद्धेल्लगा असंखेज्जा) मनुष्य और सर्वार्थसिद्ध देवों को छोडकर सबकी स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियां असं. ख्यात हैं (परहाणे बद्धेल्लगा णत्थि) परस्थान में बद्ध नहीं हैं (वणस्सइकाइयाणं बद्धेल्लगा असंखेज्जा) वनस्पतिकायिकों की बद्ध असंख्यात हैं (मणूसाणं नेरइयत्ते अतीता अणंता) मनुष्यों की नारकपने अतीत अनन्त हैं (बल्लिगा नत्थि) बद्ध नहीं हैं (पुरेक्खडा अणंता) आगामी अनन्त हैं (एवं जाव गेवेज्जगदेवत्ते) इसी प्रकार यावत् अवेयकदेवपने (णवरं सहाणे अतीता अणंता) विशेष-स्वस्थान में अतीत अनन्त हैं (बद्धेल्लगा सिय संखेज्जा) बद्ध कदाचित् संख्यात (सिय असंखेज्जा) कदाचितू असंख्यात (पुरेक्खडा अर्णता) आगामी अनन्त हैं। (मणसाणं भंते ! विजयवेजयंतजयंतअपराजियदेवत्ते केवइया दयिदिया अतीता ? हे भगवन् ! मनुष्यों की विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित देवपने नये (णवरं वणस्सइकाइयाणं, विजयवेजयन्तजयंतअपराजितदेवत्ते सबसिद्धगदेवत्ते) विशेष વનસ્પતિકાયિકની વિજ્ય, વિજયન્ત, જ્યન, અપરાજિત દેવપણે અને સર્વાર્થસિદ્ધ विपणे (पुरेक्खडा अणंता) भाभी अनन्त छ (सब्वेसि मणूस सब्बदृसिद्धगवजाणं सटाणे बल्लिगा असंखेज्जा)मनुष्य भने साथ. सिद्ध है। सिवाय अथानी स्वस्थानमा पर द्रव्येन्द्रियो मध्यात छ (परदाणे बल्लिगा णत्थि) ५२२थानमा नथी (वणस्सइकाइयाणं बद्धेल्लगा असंखेज्जा) २५तियिनीय असभ्यात छे (मणूसाणं नेरइयत्ते अतीता अणंता) मनुष्योनी ॥२४५ मतीत मानत छे (बद्धेल्लगा नत्थि) म नयी (पुरेक्खडा अणता) मामी मनन्त छ (एवं जावो उजगदेवत्ते) से सारे यावत् अवय४ देवपणे (णवरं सहाणे अतीता अणंता) विशेष-१. स्थानमा मतीत मनन्त छ (बद्धेल्लगा सिय संखेज्जा) मद्ध हथित् सभ्यात छ (सिय असंखेज्जा) यत् असभ्यात (पुरेक्खडा अणता) आगामी अनन्त (मणूसाणं भंते ! विजय, वेजयन्त, जयन्त, अपराजियदेवत्ते केवइया दधिदिया अतीत હે ભગવાન ! મનુષ્યની વિજ્ય, વૈજયન્ત, જયન્ત, અપરાજિત દેવપ અતીત ઢબેન્દ્રિ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૩
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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