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________________ प्रज्ञापनाम मन्ति, यस्य सन्ति अष्टौ, वानव्यन्तरज्योतिष्को यथा नैरयिका, सौधर्मदेवोऽपि यथा नैरयिका, नवरं सौधर्मकदेवस्य विजयवैजयन्तजयन्तापराजितत्वे कियन्ति अतीतानि ? गौतम ! कस्यचित् सन्ति, कस्यचिन्न सन्ति; यस्य सन्ति अष्टौ, कियन्ति बद्धानि ? न सन्ति, कियन्ति, पुरस्कृतानि ? गौतम ! कस्यचित् सन्ति, कस्यचिन्न सन्ति, यस्य सन्ति अष्टौ वा षोडश वा. सर्वार्थसिद्धकदेवत्वे यथा नैरयिकस्य, एवं यावद् ग्रैवेयक देवस्य, सर्वार्थसिद्धस्ताबद ज्ञातव्यः, एकैकस्य खलु भदन्त ! विजयवैजयन्तजयन्तापराजितदेवस्य नैरयिकत्वे वियन्ति द्रव्येन्द्रियाणि अतीतानि ? गौतम ! अनन्तानि, कियन्ति बद्धानि ! न सन्ति, जिनकी हैं, आठ हैं (वाणमंतर जोइसिए जहा नेरहयस्स) वानव्यन्तर ज्योतिष्क में नैरयिक के समान (सोहम्मगदेवे वि जहा नेरइए) सौधर्मदेव में जैसे नारक में (नवरं) विशेष (सोहम्मगदेवस्स विजयवेजयंतजयंतापराजियदेवत्ते केवड्या अतीता ?) सौधर्मदेव की विजय, वैजयन्त जयन्त और अपराजितदेवपने अतीत कितनी ? (गोयमा ! कस्सह अस्थि, कस्सई णस्थि) हे गौतम ! किसी की है, किसी की नहीं (जस्स अत्थि अट्ठ) जिसकी हैं, आठ हैं (केवइया बद्धल्लगा?) बद्ध कितनी ? (णत्थि) नहीं हैं (केवड्या पुरेक्खडा) आगामी कितनी? (गोयमा! कस्सह अस्थि, कस्सइ नत्थि) हे गौतम ! किसी की हैं, किसी की नहीं (जस्स अत्थि अट्ठ वा. सोलस वा,) जिसकी हैं, आठ अथवा सोलह हैं (सव्वट्ठसिद्धगदेवत्त) सर्वार्थसिद्धदेवपने (जहा नेरइयस्स) जैसे नारक की (एवं जाव गेवेज्जगदेवस्म) इसी प्रकार यावत् ग्रैवेयक देव की (सन्वट्ठसिद्धगदेवत्ते ताव णेगवं) सर्वार्थसिद्धदेव तक जानना चाहिए। (एगमेगस्त णं भंते ! विजयवेजयंतजयंतापराजियदेवस्स नेरइयत्त केवइया दविदिया अतीता ?)हे भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित (वानमंतरजोइसिए जहा नेरइयस्स) पानव्यन्त२ न्योतिभा नैयिनी समान (सोहम्मगदेवे वि जहा नेरइए) सौधम हेमा म ना२४मा (नवर) विशेष (सोहम्मागदेवस्स विजयवेजयन्त जयन्तापराजियदेवत्ते केवइया अतीता) सौषम वन विभय यन्त જયન્ત અને અપરાજિત દેવપણે અતીત કેટલી? __(गोयमा ! कस्सइ अत्थि, कस्सइ णस्थि) 3 गौतम ! ना छ, अनी नथी (जस्म अस्थि अट्र) र छ, ४ छ (केवइया बद्धेल्लगा) प क्षी (पत्थि) नथी (केवइया पुरेक्खडा) भागाभी टमी ? (गोयमा ! कस्सइ अस्थि, कस्सइ नत्थि) धनी छे, धनी नथी (जस्स अस्थि अट्ट वा, सोलस वा) ना छे, 413 अथवा सोण छ (सव्वदृसिद्धगदेवत्ते) साथ सिद्ध १५ (जहा नेरइयस्स) २वी ना२४नी (एवं जाव गेवेज्जगदेवस्स) मे १ रे यावत् अवयवनी (सव्वदृसिद्धगदेवत्ते ताव णेयव्वं) साथ सिद्ध व सुधा नवीन. (एवमेगस्स णं भंते ! विजयवेजयम्तजयंतापराजियदेवस्म नेरइयत्ते केवइया दल्विंदिया अतीता?) श्री प्रापन सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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