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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १५ सू० ८ अतीन्द्रियविशेषविषयनिरूपणम् स्पृष्टः, यावद् नो अद्धासमयेन स्पृष्टः, एकोऽजीवद्रव्यदेशः, अगुरुलघुकम् अनन्तैरगुरुक लघुकगुणैः संयुक्तम् सर्वाकाशानन्तभागोनम् । इति इन्द्रियपदस्य प्रथम उद्देशः ॥ ८॥ टीका-अतीन्द्रियवक्तव्यताप्रस्तावादतीन्द्रियविशेषविषयं विंशतितमं द्वारं प्ररूपयितुमाह- कंबलसाडेणं भंते ! आवेढिअपरिवेढिए समाणे जावइयं उवासंतरं फुसित्ता ण चिट्टर' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! कम्बलशाटक:-कम्बलरूपः शाटक: कम्बलशाटकः स खल अवेष्टित परिवेष्टितः सन्-सघनं गाढतरं संलिष्टः सन, यावद् अवकाशान्तरम्-चावत् आकाशप्रदेशान् स्पृष्ट्वा अवगाह्य खलु तिष्ठति 'विरल्लिएवि समाणे तावइयं चेव उवासंतरे फुसित्ता णं चिट्ठइ ?' विरल्लितोऽपि-विरलीकृतोऽपि विश्लिष्टोऽपि, सन् किम् तावच्चैर अवकाशान्तरं-तावत एत आकाशप्रदेशान् स्पृष्ट्वा-अवगाह्य खलु तिष्ठति ? भगवानाह"हंता, गोयमा ! हे गौतम ! हन्त-सत्यम्, एतत् 'कंबलसाड एग आवेढिय परिवेढिए समाणे स्पृष्ट नहीं (जाव नो अद्धासमएणं फुडे) यावत् अद्धासमय से स्पृष्ट नहीं (एगे अजीवदव्वदेसे) एक अजीव द्रव्य का देश है (अगुरुलहुए) वह अगुरुलघु है (अणंतेहिं अगुरुलहुय गुणेहिं) अनन्त अगुरुलघु गुणों से (मंजुत्ते) संयुक्त है (सव्वागास अणंत भागूणे) सम्पूर्ण आकाश के अनन्तवें भाग कम (इंदियपयस्स पढमो उद्देसो) इन्द्रिपद का प्रथम उद्देशक पूर्ण हुआ। _____टीकार्थ-अतीन्द्रिय वस्तुओं की वक्तव्यता का प्रकरण होने से विशिष्ट अती. न्द्रिय विषय संबंधी इक्कीसवें द्वार की प्ररूपणा की जाती है गौतम प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! कम्बल को गुडी-मुडी कर दिया जाय अर्थात् तह पर तह जमा कर लपेट दिया जाय तो वह जितने आकाशप्रदेशों को घेरता है, क्या उतने ही प्रदेशों को फैला देने पर घेरता है ? अर्थात् क्या दोनों अवस्थाओं में बरावर ही आकाशप्रदेशों को अवगाहन करता है ? भगवन्-हां, गौतम ! ऐसा ही है। कम्बलरूप शाटक तह किया हुआ स्पृष्ट नथी. (एगे अजीव दव्व देसे) ४ २५ द्रव्य देश छ (अगुरुलहुए) ते मगु३ सधु छ (अणंतेहि अगुरुलहुयगुणेहि) अनन्त ५४३-सधु गुथी (संजुत्ते) सयुत छ (सबागास अणंतभागूणे) सपू शनी अनन्तम भाग योछ। (इंदियपयस्स पढमो उद्देसो)न्द्रिय पहने। प्रथम उद्देश पुरे। थये। ટીકાર્થ–અતીન્દ્રિય વસ્તુની વક્તવ્યતાનું પ્રકરણ હોવાથી વિશિષ્ટ અતીન્દ્રિય વિષય સંબંધી એકવીસમા દ્વારની પ્રરૂપણ કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન પૂછે છે-હે ભગવન્! કાંબળને સંકેલીને વાળી દેવાય તે જેટલા આકાશ પ્રદેશને ઘેરે છે, શું તેને ઉકેલીને ફેલાવામાં આવે તે તેટલા જ આકાશ પ્રદેશને તે ઘેરે ? અર્થાત્ શું બને અવસ્થાઓમાં સરખા જ આકાશ પ્રદેશને અવગાहना रे ? श्री. प्रशाना सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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