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________________ ५०४ प्रज्ञापनासूत्रे ३, लेश्यापरिणामः ४, योगपरिणामः ५, उपयोगपरिणामः ६, ज्ञानपरिणामः ७, दर्शनपरिणामः ८, चरित्रपरिणामः ९, वेदपरिणामः १० ॥०१॥ टीका - द्वादशपदे औदारिकादि शरीरविभागः प्ररूपितः, तेपां पुनः शरीराणां तथा परिणामन्तरा न संभवोऽस्ति, अतः परिणामस्वरूप प्ररूपणार्थमाह- 'कवि णं भंते ! परिणामे पणते ?' गौतमः पृच्छति - हे भदन्त ! कतिविधः खलु परिणामः - परिणतिःअवस्यान्तरप्राप्तिरित्यर्थः, रूपान्तरापत्तिरिति यावत्, प्रज्ञप्तः ? प्ररूपितः ? अत्रेदं बोध्यम्, यद्यपि परिणमनं परिणामस्तावद् नैगमादिनयभेदेन विविधो विवि भवति तथापि प्रधानतया द्रव्यास्तिकनयेन परिणामस्तावद् यथाकथश्चित् सदेवोत्तरपर्यायरूपं धर्मान्तरमाप्नोति नैव खलु द्रव्यस्य सर्वथा अवस्थानं नापि एकान्ततो विनाशो भवति, तथा चोक्तम् - ( णाणपरिणामे) ज्ञान परिणाम (दंसण परिणामे) दर्शन परिणाम (चरित परिणामे) चारित्र परिणाम (वेद परिणामे) वेद परिणाम कार्थ- बारहवें पद में औदारिक आदि शरीरों के विभाग की प्ररूपणा की गई, परन्तु शरीरों की उत्पत्ति विशिष्ट परिणाम के विना संभव नहीं है, अतएव प्रकृत पद में परिणाम के स्वरूप की प्ररूपणा की जाती है गौतम प्रश्न करते है - हे भगवन् ! परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? परिणाम अर्थात् परिणमन या किसी द्रव्य की एक अवस्था बदल कर दूसरी अवस्था हो जाना। यहां इतना समझ लेना चाहिए कि परिणाम विविध और चिचित्र विचित्र प्रकार का होता है, क्यों कि प्रत्येक द्रव्य और प्रतिसमय अपनी पूर्व अवस्था का परित्याग करके उत्तर अवस्था को धारण करता ही रहता है। वस्तुतः त्रिकालस्थायी द्रव्य अपने सत्स्वरूप में अवस्थित रहता हुआ भी धर्मान्तर अर्थात् पर्यायान्तर को प्राप्त होता है । द्रव्य का न तो कभी (उपगोगपरिणामे) उपयोग परिणाम णाणपरिणामे) ज्ञानपरिलाभ ( दंसणपरिणामे) दर्शन परिणाम (वरित परिणामे) यास्त्रिपरिणाम (वेदपरिणामे) वेह परिणाम ટીકા-ખારમાં પઢમાં ઔદારિક ફ્રિ શરીરના વિભાગની પ્રરૂષણા કરાઈ પરન્તુ શરીરાની ઉત્પતિ વિશિષ્ટ પરિણામના વિના સંભવતી નથી તેથી પ્રકૃત પદમાં પરિણામના સ્વરૂપની પ્રરૂપણ કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે-હે ભગવન્! પરિણામ કેટલા પ્રકારનુ' કહેવાએલુ' છે ? પરિણામ અર્થાત્ પરિણમન અગર કોઈ દ્રવ્યની એક અવસ્થા બદલીને ખીજી અવસ્થા થઇ જવી. અહીં એટલું સમજી લેવુ જોઇએ પરિણામ વિવિધ અને વિચિત્ર વિચિત્ર પ્રકારના હેાય છે, કેમકે પ્રત્યેક દ્રવ્ય પોતાના સમયાનુસાર પૂર્વ અવસ્થાના પરિત્યાગ કરીને ઉત્તર અવસ્થાને ધરણ ઠરતા રહે છે. વસ્તુત: ત્રિકાલ સ્થાયી દ્રવ્ય પેાતાના સત સ્વરૂપમાં અવસ્થિત રહીને પણ ધર્માન્તર અર્થાત્ પર્યાયાન્તરને પ્રાપ્ત થાય છે. દ્રવ્યને श्री प्रज्ञापना सूत्र : 3 -
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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