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प्रमेयबोधिनी टीका पद ११ सू० ३ भाषापदनिरूपणम् समहें' नायमर्थः समर्थः-युक्त्योपपन्नः संभवति, प्रागुक्तयुक्तेः, अथ तर्हि किं सर्वोऽपि न जानातीत्यत आह-‘णण्णत्थ सण्णिणो' नान्यत्र संज्ञिनः, संज्ञिनम्-अवधिज्ञानिनं जातिस्मरं वा सामान्येन विशिष्ट मनः पाटवशालिनं वा विहाय तदन्यो न जानाति, संज्ञी पुनरवधिज्ञानी तु जानात्येवेति भावः । अत्रोष्ट्रादयोऽतिशैशवावस्थाः परिग्रहीतव्याः, नो जरठावस्थाः, जर ठावस्थायां परिज्ञानसंभवात् ।। सू० ३ ॥
वाविशेषवक्तव्यता ___ मूलम्-अह भंते मणुस्से महिसे आसे इत्थी सीहे वग्धे विगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे रासभे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोकंतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा एगवऊ ? हंता, गोयमा ! मणुस्से जाव चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा एगवऊ, अह भंते ! मणुस्सा जाव चिल्ललगा जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा बहुवऊ ? हंता गोयमा ! मणुस्सा जाव चिल्ललगा सव्वा सा बहुवऊ । अह भंते। मगुस्सी महिसी वलवा हत्थिणिया सीही वग्घी विगी दीविया अच्छी तरच्छी परस्सरा रासभी, संगत नहीं है। युक्ति पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। तो क्या कोई भी ऊंट आदि ऐसा नहीं जानता है ? इसका उत्तर यह है कि-संज्ञी के सिवाय, अर्थातू कोई अवधि ज्ञानी, जाति-स्मरणज्ञानी अथवा विशिष्ट मानसिक पटुता वाला ही ऐसा जान सकता है-सब नहीं। ___ यहां ध्यान रखने की बात यह है कि यद्यपि प्रदेशों में सामान्य रूप से उष्ट्र आदि का उल्लेख किया गया है, तथापि उनका अभिप्राय शैशव अवस्था वाले ऊंट आदि ही समझना चाहिए, परिपक्व उम्र वाले नहीं, क्यों कि परिपक्ख उम्र वालों को उक्त प्रकार का ज्ञान होना संभव है ॥३॥ નથી. યુક્તિ પૂર્વવત્ સમજી લેવી જોઈએ. તે શું કઈ પણ ઊંટ આદિ એવું નથી જાણતા ? એને ઉત્તર એ છે કે-સંજ્ઞીના સિવાય અર્થાત્ કંઈ અવધિજ્ઞાની, જાતિ સમરણ જ્ઞાની અથવા વિશિષ્ટ માનસિક પટુતાવાળા જ એવું જાણી શકે છે બધા નહીં.
અહીં ધ્યાન રાખવાની વાત એ છે કે યદ્યપિ પ્રશ્નોમાં સામાન્ય રૂપથી ઉષ્ટ્ર આદિને ઉલ્લેખ કરેલો છે, તથાપિ એમનો અભિપ્રાય શૈશવ અવસ્થાવાળા ઊંટ આદિ જ સમજવા જોઈએ, પરિપકવ ઉમ્મરવાળા નહીં, કેમકે પરિપકવ ઉમ્મરવાળાઓને ઉક્ત પ્રકારનું જ્ઞાન यस छ. ॥ 3 ॥
प्र०३५
श्री प्रशान। सूत्र : 3