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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ११ सू० २ भाषापदनिरूपणम् २५१ 'जा य इत्थीवऊ जा य पुमवऊ जा य णपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा'-या च स्त्रीवाकू-स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिका खट्वालतेत्यादिलक्षणा, या च पुंवाक् पुंल्लिङ्गप्रतिपादिका-घटः पट इत्यादिलक्षणा, या च नपुंसकवाक्-कुडयं काण्डमित्यादिलक्षणा भाषा वर्तते सा एषा प्रज्ञापनी खलु भाषा भवति नेपा भाषा मृषा भवति, शब्दप्रवृत्तिप्ररूपणे पूर्वोक्तानि 'स्तनकेशवती नारी-इत्यादि स्यादिलक्षणानि स्त्रीलिङ्गादि शब्दाभिधेयानि भवन्ति किन्तु अभिधेयधर्माः इयमयमिदं शब्दव्यवस्था हेतवो गुरूपदेशपारम्पर्यगम्याः स्त्रीलि. गादि शब्दाभिधेयाः, भवन्ति, तेषामभिधेयधर्माणां तत्त्वतो लोकव्यवहारसिद्धत्वात, तथा चोक्तम्-"इयमयमिदमिति शब्दव्यवस्थाहेतुरभिधेयधर्मः उपदेशगम्यः स्त्रीपुंनपुंसकत्वानि" इति, अतः शाब्दव्यवहारापेक्षया यथावस्थितार्थप्रतिपादनात् प्रज्ञापनीयं खलु भाषा भवति, दुष्ट विवक्षया अनुच्चारितत्वात् परपीडाजनकत्वाभावाच्च नैषा मृषेति भावः । भगवान उत्तर देते हैं-हे गौतम ! हां, यह भाषा सत्य है, मृषा नहीं है। यह जो स्त्रीवचन है, जैसे खट्वा, लता आदि, यह जो पुरुष वचन है, जैसे घट, पट आदि और यह जो नपुसकवचन है, जैसे कुडयम्, काण्डम् आदि, यह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है। जब किसी शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो वह शब्द पूर्वोक्त स्त्री, पुरुष या नपुंसक के लक्षणों का वाचक नहीं होता। ये विभिन्न लिंगों के शब्द 'इयम्, अयम् तथा इदम्' शब्दों की व्यवस्था के कारण होते हैं और गुरु के उपदेश की परम्परा से जाना जाता है कि कौन शब्द स्त्रीलिंगी, कौन पुंलिंगी और कौन नपुंसकलिंगी है। उनके अभिधेय धर्म वस्तुतः लोकव्यवहार से सिद्ध होते हैं । कहा भी है-'इथमदमिदमिति शब्दव्यवस्था हेतु रभिधेय धर्मः उपदेशगम्यः स्त्रीपुनपुंसकत्वानि' इसका आशय ऊपर आ गया है । इस प्रकार शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन करने के कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है। इसका प्रयोग न तो किसी શ્રી ભગવાન ઉત્તર આપે છે- હે ગૌતમ! હા આ ભાષા સત્ય છે, મૃષા નથી આ જે સ્ત્રીવચન છે, જેમકે ખટૂવા, લતા આદિ, આ જે પુરૂષવચન છે જેમ ઘટ પટ આદિ અને આજે નપુંસક વચન છે, જેમ કુદ્યમ્ આદિ- એ ભાષા પ્રજ્ઞાપની છે. મૃષા નથી. જ્યારે કેઈ શબ્દને પ્રયોગ કરાય છે તો તે શબ્દ પૂર્વોક્ત સ્ત્રી પુરૂષ અગર નપુંસકના लक्षणीना पाय नथी थता. विमिन्न सिगाना हो 'इयम्, 'अयम्' तथा इद શબ્દોની વ્યવસ્થાને કારણે થાય છે અને ગુરૂના ઉપદેશની પરંપરાથી સમજાય છે કે ક શબ્દ સ્ત્રીલિંગી, કણ પુલિંગી અને કોણ નપુંસકલિંગી છે. તેમના અભિધેય ધર્મ वस्तुत: व्यवहारथी सिद्ध थाय छे. ४युं ५ इयमदमिदमिति शब्दव्यवस्था हेतु रभिधेयधर्मः उपदेशगम्यः स्त्रीनपुसकत्वानि" तेना माशय अ५२ मानी गयो छ. मे शते શાબ્દિક વ્યવહારની અપેક્ષાએ યથાર્થ વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરવાના કારણે આ ભાષા પ્રજ્ઞા શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૩
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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