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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १० सू. ७ जीवादिचरमाचरमनिरूपणम् गाहा-'गइठिइ भवे य भासा आणापाणु चरमे य बोद्धव्वा । आहार भावचरमे वण्णरसेगंधफासे य ॥ १॥ संग्रहणी गाथाछाया-गतिस्थिति भवश्च भाषा आनप्राणचरमश्च बोद्धव्याः। आहारभाव चरमो वर्णरसो गन्धस्पर्शश्च ॥१॥ उक्तोऽर्थः, ॥सू०७॥ 'दसमं चरमपदं समत्तं' इतिश्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपश्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्री-शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पदविभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-व्रतिविरचितायां श्री प्रज्ञापनासूत्रस्य प्रमेयबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां दशमं चरमपदं समाप्तम् ॥१०॥ ज्योतिष्क और वैमानिकों में से भी किसी को स्पर्शचरम और किसी को स्पर्श -अचरम समझना चाहिए। स्पष्टीकरण गति चरम आदि के समान ही जानना चाहिए। जिन गति आदि पर्यायों के आधार से नारक आदि के चरमत्व-अचरमत्व की प्ररूपणा की गई है, उनका नामोल्लेख करने वाली एक गाथा इस प्रकार है-(१) गति (२) स्थिति (३) भव (४) भाषा (५) आनप्राण (६) आहार (७) भाव (८) वर्ण (९) रस (१०) गंध (११) स्पर्श, उनकी अपेक्षा चरमत्य-अचरमत्व का विचार है ।सू० ७॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलाल ब्रतिविरचित प्रज्ञापना सूत्र की प्रमेययोधिनि व्याख्या में दसवां चरमपद समाप्त ॥१०॥ અને વૈમાનિકમાંથી પણ કેઈને સ્પર્શ ચરમ અને કેઈને સ્પર્શ અચરમ સમજવા જોઈએ સ્પષ્ટીકરણ ગતિ ચરમ આદિના સમાન જ જાણવું જોઈએ. જે ગતિ આદિ પર્યાના આધારે નારક આદિના ચરમ-અચરત્વની પ્રરૂપણા કરાઈ છે તેમના નામે લેખ કરવાવાળી એક ગાથા આ રીતે છે-(૧) ગતિ (૨) સ્થિતિ (3) लव (४) भाषा (५) माना ] (१) मा २ (७) साप (८) व (4) २स (१०) ગંધ (૧૧) સ્પર્શ એમની અપેક્ષાએ ચમત્વ અચરમત્વને વિચાર છે. સુશા શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલ રતિવિરચીત પ્રજ્ઞાપના સૂત્રની પ્રમેયબેધિની વ્યાખ્યામાં દસમું ચરમ પદ સમાસ ૧૦ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૩
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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