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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १० सू. ६ संस्थाननिरूपणम् १८५ " आयतम्, परिमण्डलस्य खलु भदन्त ! संस्थानस्य असंख्येयप्रदेशिकस्य असंख्येयप्रदेशावगा - ढस्य अवरमस्य चरमाणाञ्च चरमान्तप्रदेशानाच अचरमान्तप्रदेशानाश्च द्रव्यार्थतया प्रदेशाप्रदेशात कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा, बहुका वा, तुल्या वा, विशेषाधिका वा ? गौतम ! यथा रत्नप्रमायाः अल्पबहुत्वं तथैव निरवशेषं भणितव्यम् एवं यावत् आयतम्, परिमण्डलस्य खलु भदन्त ! संस्थानस्य अनन्तप्रदेशिकस्य संख्येयप्रदेशाब गाढस्य अचरमस्य गुणा हैं (चरमंतपसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं ( एवं जाव आयते) इसी प्रकार यावत् आयत संस्थान । (परिमंडलस्स णं भंते ! सठाणस्स असंखिज्जपए सियस्स असंखेज्ज एसोगाढस्स अचरमस्स चरमाण य चरमंतपसाणय अचरमंतपसाण य) भगवन् ! असंख्यात प्रदेशी एवं असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ परिमंडल संस्थान के अचरम, चरमाण, चरमान्तप्रदेशों और अचरमान्तप्रदेशों में (दव्वट्टयाए पसट्टयाए बहुपए सट्टयाए) द्रव्य से, प्रदेशों से तथा द्रव्य और प्रदेशों से (कयरे कय रेहिंतो) कौन किससे ( अप्पावा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? ) अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? (गोयमा ! जहा रयणप्पभाए अप्पा बहुयं तहेव farai भाforsi) गौतम ! जैसे रत्नप्रभा का अल्पबहुत्व कहा वैसा ही सम्पूर्ण कहना चाहिए ( एवं जाव आयते) इसी प्रकार आयत संस्थान तक ( परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स अणतपएसियस्स संखेज्जप एसोगाढस्स) हे भगवन् ! संख्यातप्रदेशों में अवगाढ अनन्तप्रदेशी परिमंडल संस्थान के (अचसख्यात छे (अचरमन्तपएसा संखज्जगुणा ) अथरभान्त प्रदेश सभ्याता छे (चरमंतपरसा य अचरमं तपएसाय दोवि विसेसाहिया ) यरभान्त प्रदेश भने अथरभान्त अहेश मन्ने विशेषाधि छे ( एवं जाव आयते) से अरे यावत् भायत संस्थान (परिमंडलस्स णं भंते! संठाणस्स असंखेज्जपएसियस्स असंखेज्जपएसोगाढस्स अचरमस्स चरमाण य चरमंतपरसाण य अचमंतपरसाण य) हे भगवन् असं ज्यात अहेशी તેમજ અસંખ્યાત પ્રદેશેામાં અવગાઢ પરિમ`ડલ સ ́સ્થાનના અચરમ, ચરમાણુ ચરમાન્ત अदेशी याने अयरमान्त प्रदेशोभां (कवट्टयाए पएसटुयाए, दव्बट्टपसट्टयाए) द्रव्यथी, अहेशोथी तथा द्रव्य रमने प्रदेशोथी ( कयरे कयरे हिंतो) आशु हैनाथी (अप्पा वा बहुया तुल्ला वा विसेसाहिया वा १) महय, धा; तुल्य अथवा विशेषाधि४ छे ? (गोयमा ! जहा रयणप्पभाए अप्पा बहुयं तदेव निरवसेस भाणियव्वं ) हे गौतम! भेषु रत्नप्रभानुं मदय बहुत्व छे तेवुन संपूर्ण अहेवु ले ये (एवं जाव आयते) એજ પ્રકારે આયત સંસ્થાન સુધી (परिमंडलस्सणं भंते ! संठाणस्स अनंतपएसियरस संखेज्जपएसोगादस्स) हे भगवान् ! २० २४ श्री प्रज्ञापना सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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