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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १० सू० ५ द्विप्रदेशादिस्कन्धस्य चरमाचरमत्वनिरूपणम् १६७ नो अचरमो भवति प्रागुक्तक्युतेः, 'सिय अवत्तव्यए ३' सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् अवक्तव्यो भवति स्थापना-: : अयमपि भङ्गः पूर्ववदेवयोध्यः 'णो चरमाई ४, नो चरमाणि इति व्यपदिश्यते प्रागुक्तयुक्तः, 'णो अचरमाई ५' नो वा 'अचरमाणि' इति न्यपदिश्यते 'णो अवसव्वयाई ६ नो वा अवक्तव्यानि इति व्यपदिश्यते प्रागुक्तयुक्तेः, 'सिय चरमे य अचरमे ७' सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् , 'चरमश्चाचरमश्च' इति व्यपदिश्यते, स्थापना ०० ० 'सिय चरमे य अचरमाई य ८' सप्तादेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् 'चरमश्चाचरमौ च' इति व्यपदिश्यते स्थापना-०००० अयमपि भङ्गः षट्प्रदेशिकवदेव बोध्यः, 'सिय चरमाइं च अचरमे य ९' सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित् 'चरमौ चाचरमश्च' इति व्यपदिश्यते, स्थापना-::: अयमपि भङ्गः षट्प्रदेशिकस्कन्धवदेवावसेयः, 'सिय चरमाइं च अचरमाइं य१०' सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात्-कदाचित 'चरमौ चाचरमौ च' इति व्यपदिश्यते स्थापना-: :: . 'सिय चरमे य अवत्तव्वए ये चाहिए । पूर्वकथित युक्ति के अनुसार सप्तप्रदेशी स्कंध को 'अचरम' नहीं कह सकते । वह कथंचित् 'अवक्तव्य' होता है, स्थापना-: : इस भंग को भी पहले के ही समान समझना चाहिए । यह स्कंध 'चरमाणि' नहीं कहा जा सकता, इस विषय की युक्ति पहले कह चुके हैं। इसे 'अचरमाणि' भी नहीं कह सकते, 'अवक्तव्यानि' भी नहीं कह सकते । ससप्रदेशी स्कंध कथंचित 'चरम-अचरम' कहा जा सकता है । स्थापना यों है-० ०० ० ० उसे कथं. चित् 'चरम-अचरमौ' कहा जा सकता है। उसकी स्थापना यों है- ० ० ० ० इस भंग को भी षट्प्रदेशी के समान समझना चाहिए। यह सप्तप्रदेशी स्कंध 'चरमो-अचरम' कहा जा सकता है, स्थापना यों है- ० ० ० इसे भी षटप्रदेशी स्कंध के समान समझना चाहिए । ससप्रदेशी स्कंध कथंचित् 'चरमोअचरमौ' कहा जाता है, उसकी स्थापना यो है-:: : ० सप्तप्रदेशी स्कंध पूर्व थित युटितना अनुसार सत प्रदेशी २४न्धन 'अचरम' नथी ४ी आता. ते - यित् 'अवक्तव्य' थाय छ, स्थापना- 8 20 लगने ५५ पडसाना समान सभनपाध्ये, मा २४.५ 'चरमाणि' नयी ४ी शत विषयनी युति पडसा ही हधेसी छे. તેને અચરમાણિ પણ નથી કહી શકતા. અવકતવ્યાનિ પણ નથી કહી શકતાસત પ્રદેશી સ્કન્ધકર્થयित् 'चरम'अचरम ४डी ४ाय छे. स्थापना माम छे०० ० ०० ते ४थयित् 'चरम अचरमौ डी શકાય છે તેની સ્થાપના આ પ્રમાણે છે-૦g ૦૦ આ ભંગને પણ ષટ્રપ્રદેશના સમાન समान. मा ससप्रदेशी २४५ 'चरमौ अचरमौ, ही शय छ तनी स्थापना माम छ-8880 ससशी २४५ ४थायित् चरम अवक्तव्य ४डेवाय छे, स्थापना माम छ...: : 0 ससप्रदेशी २५ यथित 'चरम अवक्तव्यौ ४उपाय छे. तन स्थापना श्री प्रशान। सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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