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________________ १४६ प्रज्ञापनासूत्रे माणि' इति व्यपदिश्यते, 'नो अवत्तव्ययाई ६' नो वा 'अवक्तव्यानि ' इति व्यपदिश्यते, किन्तु - 'सिय चरमे य अचरमे य ७' पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात् - कदाचित्, 'चरमश्च अचरमच' इति व्यपदिश्यते, तथाहि यदा पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धो वक्ष्यमाणपञ्चदशस्थापना १५ रीत्या पञ्चसु आकाशप्रदेशेषु अवगाहते तदा चरमाणां चतुर्णां परमाणूनामेकसम्बन्धिपरिणामत्वादेकवर्णगन्धरसस्पर्शत्वाच्चैकत्वव्यपदेशे चरम इति व्यपदेशः, मध्यमस्तु परमाणु मध्यवर्तित्वादचरम इति व्यपदिश्यते इति तदुभयात्मकस्य पञ्चप्रदेशिक स्कन्धस्यापि 'चर मश्राचरमश्च' इति व्यपदेशो भवति 'नो चरमे य अचरमाई य ८' पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धो नो 'चरमथ अचरमाणि च' इति व्यपदिश्यते प्रागुक्तयुक्तेः, किन्तु 'सिय चरमाई य अचरमे य ९' पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात् - कदाचित् 'चरमौ च अचरमथ' इति व्यपदिश्यते तथाहि यदा किल पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धो वक्ष्यमाणषोडशस्थापना १६रीत्या समश्रेण्या व्यवस्थितेषु त्रिषु आकाशप्रदेशेषु अवगाहते तत्र द्वौ परमाणू आद्ये आकाशप्रदेशे, द्वौ चान्ते आकाशप्रदेशे, एकश्च 'अचरमाणि' भी नहीं कह सकते, 'अवक्तव्यानि' भी नहीं कह सकते, मगर कथंचित् 'चरम - अचरम' कहा जा सकता है, क्यों कि जब कोई पंचप्रदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली पन्द्रहवीं स्थापना के अनुसार पांच आकाशप्रदेशों में अवगाहन करके रहता है, तब अन्त के चार परमाणु एकसम्बद्ध परिणामवाले होने के कारण और एक वर्ण, गन्ध, रस तथा दो स्पर्शवाले होने के कारण एक कहलाते है, अतः उन्हें 'चरम' कहा जाता है, मगर बीच का परमाणु मध्यवर्त्ती होने के कारण 'अचरम' कहा जाता है । इस प्रकार उभयरूप पंचप्रदेशी स्कंध भी 'चरम - अचरम' कहलाता है । पंचप्रदेशी स्कंध 'चरम - अचरमाणि' नहीं कहा जा सकता, इस संबंध में युक्ति पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। उसे 'कथंचित् चरमौ - अचरम' कह सकते हैं, क्यों कि जब कोई पंचप्रदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली सोलहवीं स्थापना के अनुसार समश्रेणी में स्थित तीन 'अचरमाणि' पशु नथी उडी शातु, मेनु र कोई यो. तेने 'अवक्तव्यानि' पथु नथी उडी शातु, पशु अथथित 'चरम - अचरम,' ही शाय छे, કેમકે જ્યારે કોઈ પંચ પ્રદેશી સ્કન્ધ આગળ કહેવાશે તે પંદરમી સ્થાપનાના અનુસાર પાંચ આકાશ પ્રદેશામાં અવગાહન કરીને રહે છે. ત્યારે અન્તના ચાર પરમાણુ એક સાદ્ધ પરિણામવાળા હાવાના કારણે અને એક વર્ગ ધ રસ-પવાળા होवाने रणे येऊ अडेवाय छे, तेथी ४ ते 'चरम ' કહેવાય છે, પણ વચલા પર. भागु मध्यवर्ती होवाने अरणे 'अचरम' 'डेवाय छे, मे प्रारे लय ३५ पंथ प्रदेशी २४न्ध पशु ' चरम - अचरम' वाय छे. पंथ प्रदेशी २४-६ 'चरम - अचरमाणि પહેલા કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈએ. તેને भई न्यारे अर्ध पंथ अद्वेशी सुन्ध भागण સમશ્રેણીમા સ્થિત ત્રણ આકાશ પ્રદેશમાં અવ पूर्ववत् सम નથી કહેવાતા. આ સંબંધમા યુક્તિ अथचित् 'चरमौ - अचरम' उडी शाय छे, કહેવાશે તે સેાળમી સ્થાપનાના અનુસાર શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૩
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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