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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ५ सू.१४ द्विप्रदेशिकपुद्गलपर्यायनिरूपणम् ८३१ वर्णादिभिश्चतुः स्पर्शपर्यवैश्च षट्स्थानपतितः एवं उत्कृष्टावगाहनकोऽपि, अजन्यानुत्कृष्टावगाहनकोऽपि एवञ्चैव,नवरं स्वस्थाने द्विस्थानपतितः, जघन्यावगाहनकानां भदन्त ! असंख्येयप्रदेशिकानां पृच्छा, गौतम ! अनंताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः तत् केनाथैन भदन्त ! एवमुच्यते जघन्यावगाहनकानामसंख्येयप्रदेशिकानामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः गौतम ! जघन्यावगाहनकः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धो जघन्यावगाहनकस्य असंख्येयप्रदेशिकस्य स्कन्धस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः प्रदेशार्थतया चतुः से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है (पएसट्टयाए दुट्टाणवडिए) प्रदेशों की दृष्टि से द्विस्थानपतित (ओगाहणट्टयाए तुल्ले) अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य (ठिईए चउट्ठाणवडिए) स्थिति से चतुःस्थान पतित (वण्णाइ चउप्फासपजवेहि य छट्ठाणवडिए) वर्णादि से तथा चार स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित (एवं उक्कोसोगाहणए वि इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाला भी (अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेव) मध्यम अवगाहना वाला भी इसी प्रकार (णवरं सहाणे दुट्ठाणवडिए) विशेष यह कि स्वस्थान में वह द्विस्थानपतित है ___ (जहण्णोगाहणगाणं भंते ! असंखिज्जपएसियाणे पुच्छा?) हे भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले असंख्यात प्रदेशी स्कंधों की पृच्छा ? (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणटेणं भंते। एवं बुचइ-जहण्णोगाहणगाणं असंखेज्जपएसियाणं अणता पज्जवा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा कि जघन्य अवगाहना वाले असंख्यातप्रदेशी स्कंधों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? (गोयमा ! जहण्णोगाहणए असंखिज्जपएसिए खंधे जहण्णोगाह(ओगाहणट्टयाए तुल्ले) २५॥ नानी अपेक्षाये तुल्य (ठिईए चउट्ठाणवडिए) स्थितिथी यतु:स्थानपतित (वण्णाइ चउफासपज्जवेहिय छटाणवडिए) पहिथी तथा या२ २५शन पर्यायाथी पटस्थान पतित (एवं उक्कोसोगाहणए वि) से ४१२ कृष्ट समानावा ५५(अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेव) मध्यम मानावा मा प्रारे (णवरं सदाणे दुद्राणवडिए) विशेष એ કે સ્વાસ્થાનમાં તે દ્વિસ્થાન પતિત છે. (जहण्णोगाहणगाणं भंते ! असंखिज्जपएसियाणं पुच्छा १) भगवन् ! “धन्य मानावा मसज्यात प्रवेशी ॐन्धानी २छ। १ (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) गौतम ! अनन्त पर्याय ४ा छ (से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जहण्णोगाहणगाणं असंखज्जपएसियाण अणंता पज्जवा पण्णत्ता) ભગવદ્ ! શા કારણે એમ કહ્યું કે જઘન્ય અવગાહનાવાળા અસંખ્યાત પ્રદેશી २४-धोना अनन्त पर्याय ४॥ छ ? (गोयमा ! जहण्णोगहिणए असंखिज्ज पए શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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