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________________ -- प्रमेयबोधिनी टीका पद ५ सू.१० पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पर्यायाः ७१५ एवमुच्यते-जघन्यगुणकाल कानां पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जयन्यगुणकालकः पञ्चेन्द्रियतियग्योनिको जघन्यगुणकालकस्य पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुः स्थानपतितः, स्थित्या चतुः स्थानपतितः, कृष्णवर्णपर्यवैस्तुल्यः, अवशेषैः वर्णगन्धरसस्पर्शपयवैः त्रभिः ज्ञानः, त्रिभिरज्ञानैः, त्रिभिर्दर्शनैः षट्स्थानपतितः, एवमुत्कृष्टगुणकालकोऽपि, अजयन्यानुत्कृष्टगुणकालकोऽपि (गोयमा ! अर्णता पन्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जहण्णगुणकालगाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अणंता पजवा पण्णत्ता ?) किस कारण हे भगवन् ! ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुणकाले पंचेन्द्रिय तियच के अनन्त यर्याय हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! (जहण्णगुणकालए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए) जघन्यगुणकाला पंचेन्द्रिय तियच (जहण्णगुणकालगस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स) जवन्यगुणकाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच से (व्वट्ठयाए तुल्ले) द्रव्य से तुल्य है (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों से तुल्य है (ओगाहणट्टयाए चउठाणवडिए) अवगाहना से चतुःस्थानपतित है (ठिईए चउठाणवडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित है (कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले) काले वर्ण के पर्यायों से तुल्य है(अवसेसेहिं वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं) शेष, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के पर्यायो से (तिहिं नाणेहिं) तीन ज्ञानो से (तिहिं अण्णाणेहिं) तीन अज्ञानों से (तिहिं दंसणेहिं) तीन दर्शनों से (छट्ठाणवडिए) षटूस्थानपतित है (एवं उक्कोसगुणकालए वि) इसी अगंता पज्जवा पण्णत्ता) गौतम ! मनन्त पर्याय ४ा छ (से केणटठेणं भंते ! एवं बुच्चइ जहण्णगुणकालगाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?) भगवान् ॥ ४२णे सेम डेवाय छे धन्य गुणा पयन्द्रिय तिय यन मनन्त पर्याय छे ? (गोयमा !) 3 गौतम (जहगुणकालए पंचिंदिय. तिरिक्खजोणिए) सधन्य शुष्प पयन्द्रिय तियय (जहण्णगुणकालगस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स) धन्य गुष ५येन्द्रिय तिय यथी (दव्वटुयाए तुल्ले) द्रव्यथी तुल्य छ (पएसट्ठयाए तुल्ले) प्रदेशथी तुक्ष्य (ओगाहणद्वयाए चउदाणवडिए) स नाथी यतु:स्थान पतित छ (ठिईए चउद्राणवडिए) स्थितिथी यतु:स्थान पतित छ (कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले) stvn qणु न। ५यायोथी तुल्य छ (अवसेसेहिं वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं) शेष, प, मध, २स २५शन। पर्यायाथी (तिहि अण्णाणेहिं) अ अज्ञानाथी (तिहिं दसणेहि) त्र शनाथी (छट्ठाणवडिए) १८२थान पतित छे (एवं उक्कोसगुणकालए वि) मे रे rabट शु) શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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