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________________ ६९६ मज्ञापनासूत्रे ज्ञानी अपि, श्रुताज्ञानी अपि, अचक्षुर्दर्शनी अपि, नवरं यत्र ज्ञानानि तत्र अज्ञानानि न सन्ति, यत्र अज्ञानानि तत्र ज्ञानानि न सन्ति, यत्र दर्शनं तत्र ज्ञानान्यपि अज्ञानान्यपि, एवं त्रीन्द्रियाणामपि चतुरिन्द्रियाणामपि एवञ्चैव, नवरं चक्षदर्शन मभ्यधिकम् ॥ ____टीका--अथ द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रयपर्यन्तानाम् जघन्याधवगाहनकादीनां पर्यवान् प्ररूपयितुमाह-'जहण्णोगाहणगाणं भंते ! बेइंदियाणं पुच्छा' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! जघन्यावगाहनकानां द्वीन्द्रियाणां कियन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? सहाणे छट्ठाणवडिए) विशेष यह कि स्वस्थान में भी अर्थात् आभिनिबोधिक ज्ञान में भी षट्स्थानपतित है (एवं सुयणाणी वि) श्रुतज्ञानी भी इसी प्रकार (सुयअण्णाणी वि) श्रुताज्ञानी भी इसी प्रकार (अचखुदंसणी वि) अचक्षुदर्शनी भी इसी प्रकार (नवरं) विशेष (जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा नत्थि जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा नत्थि) जहां ज्ञान है वहां अज्ञान नहीं हैं, एवं जहा अज्ञान है वहां ज्ञान नहीं है (जत्थ दंसणं तत्थ णाणावि अण्णाणा वि) जहां दर्शन है वहां ज्ञान भी या अज्ञान भी दोनो में कोई भी हो सकते हैं (एवं तेइंदियाण वि) त्रीन्द्रिय भी इसी प्रकार (चउरिंदियाण वि एवं चेव) चौइंन्द्रिय भी इसी प्रकार (नवरं चक्खुदंसणं अभहियं विशेषता यह कि चौइन्द्रियों में चक्षुदर्शन अधिक कहना चाहिए। टीकार्थ-अब हीन्द्रिय जीवों से लेकर चौइन्द्रिय जीवों तक के पर्यायों की प्ररूपणा की जाती है। गौतम प्रश्न करते हैं-भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले दीन्द्रिय ज्ञानी ५ मे प्रारे (नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए) विशेष मे २१२थानमा ५५ मत मानिनिमाधि४ ज्ञानमा ५ पटथान पतित छ (एवं सुयणाणी वि) श्रुतज्ञानी ५५] को प्रारे (सुय अण्णाणी वि) श्रुताशानी ५५] से प्रहार (अचक्खुदसणी वि) २सयशनी ५ ४ ५४ारे (नवर) विशेष (जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा नस्थि) ii ज्ञान छेत्यां भज्ञान नथी (जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा णत्थि) ज्यां सज्ञान छ त्यो ज्ञान नथी (जत्थ दंसणं तत्थ णाणा वि अण्णाणा वि) यां દશન છે. ત્યા જ્ઞાન પણ હોય છે અને અજ્ઞાન પણ બન્નેમાંથી કેઈ પણ એક डा श छ (एवं तेइंदियाण वि) त्रीन्द्रिय ५७ मे (चरिंदियाण वि एवं चेव) यतुरिन्द्रिय ५९५ २ ५४ारे (नवरं चवखुदसणं अव्भहियं) विशेषता એકે ચતુરિદ્ધિમાં ચક્ષુદર્શન અધિક કહેવું જોઇએ. ટીકાઈ-હવે દ્વીન્દ્રિય જીથી લઇને ચતુરિન્દ્રિય જી સુધીના પર્યાની પ્રરૂપણ કરાય છે. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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