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________________ ६७२ प्रज्ञापनासूत्र तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या त्रिस्थानपतितः, कृष्णवर्णपर्यवैस्तुल्यः, अवशेषः वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः षट्स्थानपतितः, द्वाभ्याम् अज्ञानाभ्याम् अचक्षुर्दर्शनपर्यवैश्व षट्स्थानपतितः, एवमुत्कृष्टगुणकालकोपि अजयन्यानुत्कृष्टगुणकालकोऽपि एवञ्चैव, नवरं स्वस्थाने षट्स्यानपतितः, एवं पञ्चवर्णाः, द्वौ गन्धौ, पञ्चरसाः, अष्टौ स्पर्शाः भणितव्याः, जघन्यमत्यज्ञानीनां भदन्त ! पृथिवीकापृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य हैं (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है (ओगाहट्टयाए चउढाणवडिए) अवगाहना की अपेक्षा चतुःस्थानपतित है (ठिईए तिहाणवडिए) स्थिति से त्रिस्थानपतित है (कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले) कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्य है (अवसेसेहिं वण्णगंधरसफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिए) शेष वर्ण, गंथ, रस, स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित है (दोहिं अन्नाणेहिं) दो अज्ञानों के (अचक्खुदंसणपज्जवेहिं य) और अचक्षुदर्शन के पर्यायों से (छट्ठाणवडिए) षट्स्थानपतित है (एवं उक्कोस गुण कालए वि) ऐसा ही उत्कृष्टगुण कृष्ण भी (अजहण्णमणुक्कोसगुण कालए वि एवं चेव) मध्यमगुण कृष्ण भी इसी प्रकार (नवरं) विशेष यह कि (सटाणे छठाण वडिए) स्वस्थान में षट्स्थानपतित है (एवं पंचवण्णा) ऐसे ही पांच वर्ण (दो गंधा) दो गंध (पंच रसा) पांच रस (अफासा) आठ स्पर्श (भाणिपन्या) कहने चहिए (जहण्णमहअन्नाणीणं भंते ! पुढविकाइयाणं) हे भगवन् ! जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिकों के विषय में प्रच्छा ? (गोयमा ! अणंता ગુણ કાળ પૃથ્વીકાયિક જઘન્ય ગુણ કાળા પૃથ્વીકાયિકથી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ तुल्य छ (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रशानी अपेक्षा तुक्ष्य छ (ओगाहणयाए चउटाणवडिए) भगनानी अपेक्षा यतुःस्थान पतित छ (ठिईए तिट्राणवडिए) स्थितिथी त्रिस्थान पतित छे (कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले) ४५ पना पर्यायाथी तुल्य छ (अवसेसेहिं वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं छद्वाणवडिए) शेष १, गधा २स, २५शन। पर्यायाथी पट्थान पतित छे (दोहिं अन्नाणेहिं) मे २मज्ञानाथी (अचक्खुदंसणपज्जवेहि य) मने अयशनना पर्यायाथी (छदाणवडिए) षट्स्थान पतित छ (एवं उक्कोसगुणकालए वि) सभी उत्कृष्ट गुण । ५ (अजहण्णमणुकोसगुणकालए वि एव चेव) मध्यम गुए) ५५५ मे (नवर) विशेष से (सटाणे छट्ठाणवडिए) स्वस्थानमा स्थान पतित छ (एवं पंचवण्णा) से प्रमाणे पांच वर्ष (दो गंधा) मे गध (पंच रसा) पांय २स (अट्ठ फासा) मा २५श (भाणियव्वा) मे (जहण्ण मइअन्नाणीणं भंते ! पुढविकाइयाणं) ॐ भगवन् ! ४५न्य भति શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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