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________________ ६३० प्रज्ञापनासूत्रे जघन्य चक्षुर्दर्शनिकस्य नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः प्रदेशार्थतया तुल्यः, अगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या चतु:स्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः, त्रिभिमा॑नः, त्रिमिरज्ञानैः षट्स्थानपतितः, चक्षुर्दर्शनपर्यवस्तुल्यः, अचक्षुर्दर्शनपर्यवैः, अवधिदर्शनपर्यवैः षट्स्थानपतितः, एवमुत्कृष्ट चक्षुर्दर्शनअणंता पज्जवा पण्णत्ता) किस कारण से हे भगवन् ! ऐसा कहा कि जघन्य चक्षुदर्शनी नारकों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? (गोयमा ! जहपणचक्खुदंसणीण नेरइए जहण्ण चवखुदंसणिस्स नेरइयस्स दव्वट्टयाए तुल्ले) हे गौतम ! जघन्य चक्षुदर्शनी नारक जघन्य चक्षुदर्शनी नारक से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है (ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए (अवगाहना से चतुःस्थान पतित है (ठिईए चउट्ठाणवडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित है (वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के पर्यायों से (तिहिं नाणेहिं) तीन ज्ञानों से (तिहिं अण्णाणेहिं) तीन अज्ञानों से (छट्ठाणवडिए) षटू स्थानपतित है (चक्खुदंसणपज्जवेहिं तुल्ले) चक्षुदर्शन के पर्यायों से तुल्य है (अचक्खुदंसणपज्जवेहिं आहिदंसणपज्जवेहि छट्ठाणवडिए) अचक्षुदर्शन के पर्यायों से, अवधिदर्शन के पर्यायों से षट् स्थानपतित है (एवं उक्कोसचखुदसणी वि) इसी प्रकार उत्कृष्ट चक्षुदर्शनी भी (अजहण्णमणुक्कोस चक्खुदसणी वि एवं चेव) अजधन्य -अनुत्कृष्ट चक्षुदर्शनी भी इसी प्रकार (नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए) जहण्ण चक्खुदसणीणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता) ॥ ४॥२0 3 मापन् ! येम ह्यु छ घन्य याशिनी नाना मनन्त पर्याय छे ? (गोयमा ! जहण्ण चक्खुदसणीणं नेरइए जहण्ण चक्खुदंसणिस्स नेरइयस्स दवढयाए तुल्ले) गीतम! જઘન્ય ચક્ષુદર્શની નારક જઘન્ય ચક્ષુદશની નારકથી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તુલ્ય छ (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रशानी अपेक्षाये तुल्य छ (ओगाहणट्टयाए चट्टाणवडिए) सनाथी यतुःस्थान पतित छ (ठिईए चट्ठाणवडिए) स्थितिथी यतुःस्थान पतित छे (वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं) वधु, ध, २४, २५शना पर्यायाथी (तिहिं नाणेहिं) त्र ज्ञानोथी (तिर्हि अण्णाणेहिं) १ २मशानाथी (छवाणवडिए) पदस्थान पतित छे (चक्खुदसणपज्जवेहिं तुल्ले) यश नना पर्यायाथी तुक्ष्य छ (अचक्खुदसणपज्जवेहिं ओहिंदसणपज्जवेहिं छट्ठाणबडिए) म-यक्षुश नना पर्यायाथी, अवधि शनना पर्यायोथी पट्यान पतित छे (एवं उक्कोसचक्खुदंसणी वि) मे १२ उत्कृष्ट य दशनी ५५ (अजहण्णमणुकोसचक्खुदसणी वि एवं चेव) मधन्य मनुष्ट यशानी ५५०४ प्रारे (नवर सदाणे छट्टाणवडिए) विशेष શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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