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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ६ सू.८ नैरयिकाणामेकसमयेनोपपातनिरूपणम् १००३ निकेभ्य उपपद्यन्ते, नो अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्य उपपद्यन्ते, यदि स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्य उपपद्यन्ते, किं चतुष्पद स्थल. चरपञ्चन्द्रियतियंग्योनिकभ्य उपपद्यन्ते, परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रि यतिर्यग्योनिकेभ्य उपपद्यन्ते ? गौतम ! चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्य उपपद्यन्ते, परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्योऽपि उपपद्यन्ते, यदि चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्य उपपद्यन्ते, किं संमूछिमेभ्य उपपद्यन्ते, गर्भव्युत्क्रान्तिनो अपजत्तयगम्भवक्कंतिय जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति) हे गौतम ! पर्याप्त गर्भज जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियों से उत्पन्न होते हैं, अपर्याय गर्भज जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियों से नहीं उत्पन्न होते (जइ थलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति परिसप्पथलयरपचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति ?) अगर स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यचों से उत्पन्न होते हैं तो क्या चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यचों से उत्पन्न होते हैं, या परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्थचों से उत्पन्न होते हैं ? (गोयमा!) हे गौतम ! (चउप्पय थलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहितोऽवि उववज्जंति) चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तियचों से भी उत्पन्न होते हैं और परिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यचों से भी उत्पन्न होते हैं। (जइ चउप्पयथलयर पंचिंदियतिरिखक्जोणिएहितो उववज्जंति, किं समुच्छिमेहिंतो उववज्जति, गम्भवक्कंतिएहितो उववज्जंति ? પર્યાપ્તક ગર્ભજ જલચર તિર્યંચ પંચેન્દ્રિયથી ઉત્પન્ન થાય છે, અપર્યાપ્ત श रसय तिय य पश्यन्द्रियोथी नथी अपन्न थता (जइ थलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति किं चउप्पयथलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिए हिन्तो उववज्जंति ? परिसप्पथलयरपंचि दियतिरिक्खजोणिएहिं हो उववज्जंति ?) ११२ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિયાથી ઉત્પન્ન થાય છે તે શું ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિયાથી ઉત્પન્ન થાય છે, અગર પરિસર્ષ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય अत्यन्त थाय छ ? (गोयमा !) हे गौतम! (चउप्पयथलयरपंचि दियतिरिक्ख. जोणिएहितो उबवज्जंति परिसप्पथलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिएहिं तो उववज्जंति) ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિયાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે, અને પરિસર્પ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિયાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે (जइ चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, किं संमुच्छिमे શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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