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________________ ७४८ प्रज्ञापनासूत्रे प्रणादितानि, सर्वरत्नमयानि अच्छानि, श्लक्ष्णानि,मसृणानि, घृष्टानि, मृष्टानि, नीरजांसि निर्मलानि, निष्पङ्कानि, निष्कङ्कटच्छायानि, सप्रमाणि, सश्रीकाणि, समरीचिकानि सोद्योतानि प्रासादिकानि दर्शनीयानि, अभिरूपाणि 'पडिरूवा' प्रतिरूपाणि सन्ति 'तत्थ णं' तत्र खलु--उपर्युक्तस्थलेषु 'णागकुमाराणं' नागकुमाराणाम् 'पज्जत्तापज्जत्ताणं' पर्याप्तापर्याप्तानाम 'ठाणा पणत्ता' स्थानानि प्रज्ञप्तानि- प्ररूपितानि सन्ति 'तीसु वि लोगस्स असंखेजइभागे' त्रिष्वपि-स्वस्थानोपपातसमुद्घातलक्षणेषु लोकस्य असंख्येयभागः-असंख्येयतमो भागो वक्तव्यः आश्रयरूपतयेति शेषः, 'तत्थणं बहवे नागकुमारा देवा परिवसंति' तत्र खलु -उपर्युक्त स्थानेषु बहवो नागकुमारा देवाः परिवसंति, ते च नागकुमारा ‘महिड्डिया' महद्धिकाः, 'महज्जुईया' महाद्युतिकाः ‘सेसंजहा ओहियाणं जाव विहरंति' शेषम् अवशिष्टं यथा औधिकानाम्-समुच्चयभवनपतीनां प्रतिपासे व्याप्त रहते हैं। दिव्य वाद्यों के शब्द से गूंजते रहते हैं। वे सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, चिकने हैं, सुकोमल हैं, घृष्ट और मृष्ट (घिसे हुए और खूब घिसे हुए) हैं । नीरज, निर्मल और निष्पंक हैं। आवरण रहित कान्ति वाले, प्रभासम्पन्न, श्रीसम्पन्न, किरणों से युक्त, उद्योतवान , प्रसन्नता जनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। ___ इन उपर्युक्त स्थलों में पर्याप्त तथा अपर्याप्त नागकुमार देवों के स्वस्थान कहे गए हैं। वे स्वस्थान, उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । इन स्थानों में बहुत-से नागकुमार देव निवास करते हैं । वे नागकुमार महान ऋद्धि के धारक तथा महान् द्युति से युक्त हैं । उनका शेष वर्णन उसी प्रकार का समझना चाहिए जैसा सामान्य भवनवासियों का किया गया है। વાદ્યોના શબ્દથી ગુંજતા રહે છે. તેઓ સર્વ રત્નમય છે. સ્વચ્છ છે. ચિકણું छ, सुमन छ, घृष्ट भने भृष्ट छ, नी२०४, निम, मने नि०५४ छ, આવરણ રહિત કાન્તિવાળા, પ્રભાસંપન્ન, શ્રીસંપન. કિરણોથી યુક્ત, ઉદ્યોતવાન, પ્રસન્નતાજનક, દર્શનીય અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. આ ઉપર્યુક્ત સ્થળમાં પર્યાપ્ત તથા અપર્યાપ્ત નાગકુમાર દેના સ્થાન કહેલા છે–તેઓ સ્વસ્થાન, ઉપપત અને સમુદ્દઘાતની અપેક્ષાથી લેકના અસંખ્યાતમા ભાગમાં છે. આ સ્થાનોમાં ઘણા બધા નાગકુમાર દેવ નિવાસ કરે છે. તે નાગકુમારે મહાન સમૃદ્ધિના ધારક છે તથા મહાન દુતિથી યુક્ત છે તેમનું બાકીનું વર્ણન તેવી રીતથી સમજવું જોઈએ કે જેમ સામાન્ય શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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