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________________ प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.१८ असुरकुमारदेवानां स्थानानि ७२५ चैकं योजनसहस्रं वर्जयिखा मध्ये अष्टसप्ततिसहस्रोत्तरे योजनशतसहस्रे, अत्र खलु औत्तराहाणाम् असुरकुमाराणाम् देवानाम् त्रिंशदभवनावासशतसहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातम् तानि खलु भवनानि बहिवृत्तानि, अन्तश्चतुरस्राणि, शेषं यथा दाक्षिणात्यानां यावद् विहरन्ति, बली अत्र वैरोचनेन्द्रो वैरोचनराजः परिवसति, कृष्णो महानीलसदृशो यावत् प्रभासयन् स खलु तत्र त्रिंशतो भवनावासशत सहस्राणाम्, षष्टेः, सामानिकसाहस्रीणाम् त्रयस्त्रिंशतस्त्रायस्त्रिंशकानाम्, चतुणी लोयोजन (ओगाहित्ता) अवगाहन करके (हिट्ठा) नीचे (चेगं) एक (जोयणसहस्स) हजार योजन (वज्जित्ता) छोडकर (मज्झे) मध्य में (अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से) एक लाख अठहत्तर हजार योजन में (एत्थ णं) यहां (उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं) उत्तर दिशा के असुरकुमार देवों के (तीसं भवणावाससयसहस्सा) तीस लाख भवन (भवतीति मक्खायं) हैं, ऐसा कहा है (ते णं भवणा) वे भवन (बाहिं वहा) बाहर से गोल हैं (अंतो चउरंसा) अन्दर से चौकोर हैं (सेसं जहा दाहिजिल्लाणं) शेष दक्षिण दिशा के देवों के समान (जाव) यावत् (विहरंति) विचरते हैं (बली) बलीन्द्र (एत्थ) यहां (वइरोयणिदे) वैरोचनेन्द्र (वहरोयणराया) वैरोचनराज (परिवसइ) निवास करता है (काले) कृष्णवर्ण (महानीलसरिसे) महान् नील द्रव्य के समान (जाव) यावत् (पभासेमाणे) प्रकाशित करता हुआ (से गं) वह (तत्थ) वहाँ (तीसाए भवणावाससयसहस्साणं) तीस लाख भवनों का (सहीए सामाणिय. साहस्सीणं) साठ हजार सामानिक देवों का (तायत्तीसाए तायत्तीस(हिट्ठा) नाय (चेगं) मे (जोयणसहस्सं) ७००२ यो- (वज्जित्ता) छोडीन (मज्झे) भध्यमा (अट्ठहुत्तरे जोयणसहस्से) मे४६३५ मयाते२७०२ योनमा (एत्थ ण) मही (उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं) उत्त२६शाना मसु२४मा२३वाना (तीसं भवणावाससयसहस्सा) त्रीस भवन (भवंतीतिमक्खायं) छे, सेम युछे (ते गं भवणा) ते भवन (बाहिं वट्टा) पडायी छ (अंतो चांस।) २१-४२थी थोरस छ (सेस जहा दहिणिल्लाणं) शेष ४थन क्षिण दिशाना याना समान सभा (जाव) यावत (विहरंति) वियरे छ (बली) दीन्द्र (एत्थ) डि (वइरोयणिंदे) वैरायनेन्द्र (वइरोयणराया) वैशयन शन (परिवसइ) निपास ४२ छ (काले) १ (महानील सरिसे) महान् नीस द्रव्यना समान (जाव) यावत् (पमासे मागे) प्रशित ४२ता छत निवास ४२ छ (सेणं) ते (तत्थ) त्या (तीसाए भाषणाबाससयसहस्साणं) त्रीस aliपनाना (सठोए सामाणियसाहस्सीणं) सा उन्तर सामानि वानी (ताय. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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