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________________ ७०६ प्रज्ञापनासूत्रे दिव्यानाम्-अपूर्वाणाम् त्रुटितानाम्-वीणावेणु मृदङ्गादीनां वाद्यविशेषाणाम् शब्दैः कलकलध्वनिभिः संप्रणादितानि-सम्यकू श्रोतृजनमनोहारितया प्रकृष्टतया शब्दायितानि 'सव्वरयणामया' सर्वरत्नमयानि, सर्वात्मना-कात्स्न्येन, रत्नमयानि सकलरत्नमयानि इत्यर्थः, 'अच्छा' अच्छानि-स्फटिकादिवदतिस्वच्छानि, 'सण्हा' श्लक्ष्णानि-स्निग्ध पुद्गलस्कन्धनिर्मितानि 'लण्हा' मसणानि-कोमलानि, 'घट्टा' घृष्टानि पाषाणादि शिलावत् तीक्ष्णशाणेन घृष्टानीव 'मट्ठा' मृष्टानि-पाषाणवत् सुकुमारशाणया संशोधितानि ‘णीरया' नीरजांसि-स्वाभाविक रजोराहित्येन, 'निम्मला' निर्मलानि-आगन्तुकमलाभावात् 'निप्पंका' निष्पङ्कानि-कलङ्करहितानि, 'निकंकडच्छाया' निष्कङ्कटच्छायानि-निष्कङ्कटा-निष्कवचा उपघातरहिता इत्यर्थः, छाया-कान्तिर्येषां तानि निष्कङ्कटच्छायानि देदीप्यमानकान्ति युक्तानि 'सप्पभा' सप्रमाणि-स्वरूपेण प्रभावन्ति, 'सस्सिरीया' सश्रीकाणि श्रिया परमशोभया, युक्तानि-सश्रीकाणि 'समिरीइया' समरीचिनि-बहिनिर्गतकिरणसमूहानि, 'सउज्जोया' सोद्योतानि, बहिः स्थितवस्तुसमुदायप्रकाशनहैं । वहां दिव्य वीणा, वेणु, मृदंग आदि वाद्यों की मनोहर ध्वनि श्रोताओं के मन को हरण करती रहती है और वे भवन उस ध्वनि से सदा गूंजते रहते हैं । असुरकुमारों के वे भवन पूर्ण रूप से रत्नमय होते हैं, स्फटिक आदि के समान अतीव स्वच्छ होते हैं, स्निग्ध पुद्गल स्कंधों से निर्मित्त और कोमल होते हैं । पाषाण आदि की शिला के समान घिसे हुए और अत्यन्त बारीक छैनी से घिसी हुई पाषाण प्रतिमा के समान चिकने होते हैं । वे नीरज अर्थात् स्वाभाविक रज से रहित, निर्मल अर्थात् आगन्तुक मल से रहित, निष्पंक अर्थात् कलंक से रहित तथा उपघात या आवरण से रहित छाया वाले होते हैं । स्वरूप से ही प्रभा युक्त होते हैं । परमशोभा से सम्पन्न होते हैं। उनमें से किरणों का समूह बाहर निकलता रहता है । वे उद्योतહરીલે છે. અને તે ભવન આ ઇવનિથી સદા ગુંજ્યા કરે છે. અસુરકુમારોના આ ભવન પૂરેપુરા રત્નમય છે. રફટિક વિગેરેની જેમ અતીવ સ્વચ્છ હોય છે. સ્નિગ્ધ પુદ્ગલ સંઘથી નિર્મિત અને કમલ હોય છે. પાષાણની શિલાની જેમ ઘસેલા અને અત્યન્ત બારિક છીણીથી ઘસેલી પાષાણ પ્રતિમાઓના સરખા સુંવાળા હોય છે. તેઓ નીરજ અર્થાત સ્વાભાવિક રજ રહિત, નિર્મળ અર્થાત આગન્તુક મળ વિનાના પિંક કલંકરહિત તથા ઉપઘાત અથવા (આવરણ) રહિત છાયાવાળી હોય છે. સ્વરૂપથી જ પ્રભાવાળાં હોય છે. પરમ શાભાથી સંપન્ન હોય છે. તેમાંથી કિરણોને સમૂહ બહાર નિકળતે રહે છે. તેઓ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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