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________________ प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.१६ मनुष्याणां स्थानानि असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं सव्वलोए, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे॥सू० १६॥ छाया–कुत्र खलु भदन्त ! मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! अन्तो मनुष्यक्षेत्रे पञ्चचत्वारिंशत्सु योजनशतसहस्रेषु सार्थ तृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु, पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, त्रिंशत्सु अकर्मभूमिषु, षट्पञ्चाशत्सु अन्तरद्वीपेषु, अत्र खलु मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि । उपपातेन लोकस्यासंख्येयभागे, समुद्घातेन सर्वलोके, स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे ॥ सू०१६॥ टीका-अथ पर्याप्तापर्याप्तकमनुष्याणां स्थानादिकं प्ररूपयितुं गौतमः शब्दार्थ-(कहि णं भंते ! मणुस्साणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?) भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान कहां कहे गए हैं ? (गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते) गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर (पणयालीसाए जोयणसयसहप्सेसु) पैंतालीस लाख योजनों में (अड्राइज्जेसु दीवसमुदेसु) अढाई द्वीप-ममुद्रों में (पन्नरससु कम्मभूमिसु) पन्द्रह कर्मभूमियों में (तीसाए अकम्मभूमिसु) तीस अकर्मभूमियों में (छप्पन्नाए अंतरदीवेसु) छप्पन अन्तर द्वीपों में (एत्थ णं) इन स्थानों में (मगुस्साणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता) पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान हैं (उववाएणं) उपपात की अपेक्षा से (लोयस्स असंखेज्जइभागे) लोक के असंख्यातवें भाग में (समुग्धाएणं) समुद्घात की अपेक्षा (सब्बलोए) समस्त लोक में (सट्ठाणेणं) स्वस्थान की अपेक्षा (लोयस्स) लोक के (असंखेज्जइंभागे) असंख्यातवें भाग में ॥१६॥ शहाथ-(कहि णं भंते मणुस्साणं पज्जत्तापज्जत्ताणं) भगवन ! पर्याप्त मन अति मनुष्योना स्थान ४यां डसा छ ? (गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते) भनुष्यक्षेत्रानी मन्४२ (पणयालीलाए जोयणसहस्सेसु) पि२anीस साम योनमा (अढाइज्जेसु दीवसमुदेसु) २१ढावीप-समुद्रीमा (पन्नरससु कम्मभूमिसु) ५४२ माभियोमा (तीसाए अकम्मभूमिसु) त्रीस २५४म भूमिमा (छप्पनाए अंतर. दीवेस) ७५५न मत२ दीपामा (एत्थण) 24॥ २थानाम. (मणुस्साणं पज्जत्तापज्जताणं ठाणा पण्णत्ता) पर्यात भने २५५र्यात मनुष्याना स्थान छ (उवावाएण) 8५पातनी मपेक्षाये (लोयस्स असंसेज्जइभागे) सोना मन्यातमा भागमा (समुग्याएण) समुद्धातनी अपेक्षा (सब्बलोए) समस्त सोभा (सठ्ठाणेण) २१२थाननी अपेक्षाये (लोवस्स) सोना (असंखेज्जइ भागे) मसच्यातमा लामा ॥१६॥ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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