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________________ प्रमेयबोधिनी टीका प्र. पद १ सू.४१ समेदेवत्वरूपनिरूपणम् तरौपपातिकाः ? अनुत्तरौपपातिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विजयाः १, वैजयन्ताः २, जयन्ताः ३, अपराजिताः ४, सर्वार्थसिद्धाः ५ । ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाश्च, अपर्याप्तकाश्च । ते एते अनुत्तरौपपातिकाः २। ते एते कल्पातीताः ३ । ते एते वैमानिकाः ४ । ते एते देवाः । ते एते पश्चेन्द्रियाः । सा एषा संसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना । सा एषा जीवप्रज्ञापना । सा एषा प्रज्ञापना ॥सू०४१॥ ॥ प्रज्ञापनायां भगवत्यां प्रज्ञापनाख्यं प्रयम पदं समाप्तम् ॥१॥ टीका-अथ देवान् प्ररूपयितुमाह-'से किं तं देवा ?' 'से-अथ 'कि तं' के ते कतिविधा इत्यर्थः, देवाः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'देवा चउव्विहा पण्णत्ता'अपर्याप्तक (से तं गेविज्जगा) यह ग्रैवेयक देवों की प्ररूपणा हुई। (से किंत अणुत्तरोषवाइया ?) अनुत्तरोपपातिक देव कितने प्रकार के हैं ? (पंचविहा पण्णत्ता) पांच प्रकार के कहे हैं (त जहा) वह इस प्रकार (विजया) विजय (वेजयंता) वैजयन्त (जयंता) जयन्त (अपराजिया) अपराजित (सव्वट्ठसिद्धा) सर्वार्थसिद्ध (ते समासओ दुयिहा पण्णत्ता) ये संक्षेप से दो प्रकार के कहे हैं (त जहा) वह इस प्रकार (पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य) पर्याप्तक और अपर्याप्तक (से तं अणुत्तरोववाइया) ये अनुत्तरोपपातिक की प्ररूपणा हुई। (से त्त कप्पाईया) कल्पातीत की प्ररूपणा हुई। (से तं वेमाणिया) यह वैमानिकों की प्ररूपणा हुई (से तं देवा) देवों की प्ररूपणा हुई (से तं पंचिंदिया) पंचेन्द्रियों की प्ररूपणा हुई (से तं संसारसमापन्न जीयपण्णवणा) यह संसारी जीवों ज्जत्तगा य) पर्यात अने. १५४४ (से तं गेविज्जगा) ॥ अवेय४ वानी પ્રરૂપણા થઈ (से कि त अणुत्तरोववाइया) अनुत्तरीयाति: हेवे। टसा प्रा२ना छ ? (अणुत्तरोववोइया) मनुत्त५५ति द्वेष (पंचविहा पण्णत्ता) पांय ४२i छ (त जहा) तेयो 20 मारे (विजया) विनय (वेजयंता) यन्त (जयंता) भयन्त (अपराजिया) २५५२१० (सब्वटसिद्धा) सथिसिद्ध (ते समासओ दुविहा पण्णत्ता) तेस। सपे ४रीन थे. सतना ४॥ छ (तं जहा) तेस. मा शते (पज्जत्तगाय अपज्जत्तगा य) पर्याप्त अने २३५४४ (से त्तं अगुत्तरोववाइया) આ અનુત્તરપપાતિકની પ્રરૂપણા થઈ (से त्त कप्पाईया) ४८५तीतनी प्र३५॥ ५७ (से त्तं वेमाणिया) वैमानिकी नी प्र३५९॥ २७ (से तं देवा) वानी ५३५५७ (से त्तं पंचिंदिया) मे रोते प्र० ६८ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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