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________________ प्रज्ञापनासूत्रे ध्माति-जाज्वल्यमान शुक्लध्यानाग्निना दग्धं शास्त्रविधिना यैस्ते सिद्धाः, अथवा-से धन्ति स्म अपुनरावृत्त्या निर्वृतिपुरीम् अगच्छन् इति-सिद्धा, सिध्यन्ति स्म वा-निष्ठितार्था भवन्ति स्मेति सिद्धाः, सेधन्तेस्म-शासितारोऽभूवन् , मङ्गल्यरूपता याऽनुमवन्ति स्मेति सिद्धाः, विध् शास्त्रे माङ्गल्ये च' इत्यनुशासनात्, तान् तथाचोक्तम् ध्मात सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृति सौधमूर्ध्नि । ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थों, - यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे ॥१॥ इति यथोक्त सिद्धार्थप्रतिपत्तये विशेषण मा व्यपगत जरामरणभयान् जरावृद्धावस्था वयोहानिरूपा, मरणम्-प्राणत्यागरूपम्, भयम्-इहलोकादिभेदात् अर्थात् बद्ध आठ प्रकार के कर्मरूपी इंधन का, ध्मातं अर्थात् जाज्वल्यमान शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा भस्म कर दिया है जिन्होंने वे सिद्ध इसके अतिरिक्त व्याकरण में 'षिध्' धातु शास्त्र और मंगल के अर्थ का वाचक है । इसके अनुसार जो शास्ता हो चुके हैं या मंगलरूपता का अनुभव कर चुके हैं वे सिद्ध कहलाते हैं कहा भी हैं । __जिन्होंने सित (बद्ध) पुरातन कर्मों का ध्मात (भस्म) कर दिया है, या जो मुक्ति महल के उपर पहुंच चुके हैं, जो अनुशास्ता एवं कृतकृत्य के रूप में विख्यात हैं, वे सिद्ध मेरा मंगल करे ॥१॥ इन सिद्धों के अर्थ को समझने के लिए विशेषण कहते हैं-'व्यपगत जरामरणभयान् , यहां जरा का अर्थ हैं चय की गतिरूप वृद्धावस्था, मरण का अर्थ है प्राणों का त्याग और भय का अर्थ है इहलोक आदि संबंधी सात प्रकार की भीति। मा प्रधान। ४ ३चा धन (308) ने (मातं) अर्थात् orqयमान शुसધ્યાન રૂપી અગ્નિ દ્વારા ભમ કરી નાખ્યાં છે જેમણે તેઓ સિદ્ધ છે. તદુપરાન્ત વ્યાકરણમાં વિમ્ ધાતુ શાસ્ત્ર અને મંગલ અર્થને વાચક છે. તદનુસાર જેઓ જ્ઞાતા થઈ ચુક્યા છે. અથવા મંગળ રૂપતાને અનુભવ કરી ચુક્યા છે તેઓ સિદ્ધ કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે કે रसार सित (बद्ध) पुरातन नि (ध्मात) नरम ४१ नया छ, मार જેઓ મુકિત મહેલના ઉપર પહોંચી ગયા છે, જેઓ અનુશાસ્તા અને કૃત કૃત્ય નાં રૂપમાં વિખ્યાત છે, તે સિદ્ધો મારૂં મંગલ કરે ? मा सिद्धोनी म समपा माटे विशेषणे। छ-व्यपगतत जरामरणभयान् આહીંયા જરાને અર્થ વયની હાનિ રૂપ વૃદ્ધાવસ્થા, મરણને અર્થ છે પ્રાણેને ત્યાગ અને ભયના અર્થને ઈડલેક આદિ સમ્બન્ધી સાત પ્રકારની ભીતિ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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