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प्रज्ञापनासूत्रे कान्तः३९ सूर्यकान्तश्च४० ॥४॥ ये चान्ये तथा प्रकारास्ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकाच अपर्याप्तकाश्च । तत्र खलु ये ते अपर्याप्तका स्ते खलु असंप्राप्ताः । तत्र खलु ये ते पर्याप्तकाः, एतेषां वर्णादेशेन गन्धादेशेन रसादेशेन स्पर्शादेशेन सहस्राग्रशो विधानानि, संख्येयानि योनिप्रमुखशतसहस्राणि, पर्याप्तकनिश्रया अपर्याप्तका व्युत्क्रामन्ति, यत्र एक स्तत्र नियमात असंख्येयाः। ते एते खरवादरपृथिवीकायिकाः। ते एते वादरपृथिवीकायिकाः । ते एते पृथिवीकायिकाः ॥सू० १४॥ (पुलए) पुलक रत्न (सोगंधिए य) सौगंधिक रत्न (बोद्धव्वे) जानना चाहिए (चंदप्पभ) चन्द्रप्रभ रत्न (वेरुलिए) चैडूर्य रस्न (जलकंते) जलकान्त रत्न (सूरकंते य) सूरकान्त रत्न । ॥४॥
(जे याचन्ने) और भी जो (तहप्पगारा) उसी प्रकार के (ते) वे (समासओ) संक्षेप से (दुविहा) दो तरह के (पन्नत्ता) कहे हैं (तं जहा) वे इस प्रकार (पजत्तगा य) पर्याप्तक (अपजत्तगा य) और अपर्याप्त। (तत्थ) उनमें से (णं) वाक्यालंकार (जे ते अपजत्तगा) जो अपर्याप्त हैं (से णं) ये (असंपत्ता) प्राप्त नहीं (तत्थणं) उनमें से (जे ते पजत्तगा) जो पर्याप्त हैं (एएसिं) इनके (वन्नादेसेणं) रंग की अपेक्षा (गंधादेसेणं) गंध की अपेक्षा से (रसादेसेणं) रस की अपेक्षा से (फासादेसेणं) स्पर्श की अपेक्षा से (सहस्सग्गसो) हजारों (विहाणाई) भेद हैं (संखेजाई) संख्यात (जोणियप्पमुहसयसहस्साई) लाखों योनि हैं (पज्जत्तग निस्साए) पर्याप्त के सहारे (अपज्जत्ता) अपर्याप्त (वक्कमंति) उत्पन्न
(चंदप्पभ) यन्द्रप्रम २त्न (वेरुलिए) वैश्य भार (जलकंते) १५४-रत्न (सूरकंतेय) सूयन्त २त्न ॥ ४ ॥
(जे यावन्ने) मने मी ५ (तहप्पगारा) मेवा १२॥ (ते) तेथे (समासओ) सपथी (दुविहा) में प्रा२न। (पण्णत्ता) ४ा छ (तं जहा) मा शते (पज्जत्तगा य) पर्यात (अपज्जत्तगा य) भने मर्यात
(तत्थ) तेयामाथी (णं) पाया।२ (जे ते अपज्जत्तगा) 2 अपर्याप्त छ (से णं) ते। (असंपत्ता) प्रात नथी (तत्थग) तेसोमांथी (जे ते पज्जत्तगा) से प्रति छ.
(एएसि) मेगाना (वन्नादेसेणं) २नी अपेक्षा (गंधादेसेण) धनी मपेक्षाये (रसादेसेण) २सनी अपेक्षा (फासादेसेण) २५शनी मपेक्षाये (सहस्सग्गसो) ७०२ (विहाणाई) ले छ (संखेज्जई) सच्यात (जोणियप्पमुयसयसहस्साई) सामे यानि छ (पज्जत्तगनिस्साए) यातना माश्रये (अपज्जत्ता) मर्याप्त (वक्कमंति) उत्पन्न थाय छ (जत्थ) या (एगे) से (तत्थ) त्यां (नियमा) नियमथी (असंखेज्जा) २१सय सभा
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧