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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.१०७ वहुमत्स्यकच्छपाकीर्णसमुद्रसंख्या ९२१ जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं-उकोसेणं पंचजोयणसयाई' हे गौतम ! जघन्योनाऽङ्गुलस्यासंख्येयभागम् उत्कर्षेण पञ्चयोजनशतानि विद्धि इति । हे भदन्त ! कालोदे समुद्रे कियत्प्रमाणा शरीरावगाहना ? भगवानाह-हे गौतम ! 'कालोए उक्कोसेणं सत्तजोयणसयाई कालोदे समुद्रे जघन्येन अङ्गुलासंख्येयभागम् उत्कर्षेण सप्तयोजनशतानि-अवेहि 'सयंभूरमणे खलु भदन्त ! मत्स्यानां कियत्प्रमाणा शरीराणा मवगाहना ? भगवानाह-हे गौतम ! सयंभूरमणे जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जइभाग-उक्कोसेणं दसजोयणसयाई' स्वयम्भूरमणे तु जघन्येनाऽगुलाऽसंख्येयभागम् उत्कर्षतश्च -दशयोजनशतानि- एकसहस्रम् योजनानि इति भावः सू०॥१०७॥ कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहण्णे णं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं पंचजोयणसयाई' हे गौतम ! लवणसमुद्र में मत्स्यों के शरीर की अवगाहना जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से पांच सौ योजन की कही गई है 'एवं कालोए उको० सत्तजोयणाई' इसी प्रकार से कालोद. समुद्र में भी जघन्य और उत्कृष्ट शरीर अवगाहना मत्स्यों की कही गई जाननी चाहिये अर्थात् कालोदसमुद्र में जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से ७ सौ योजन की कही गई है. 'सयंभूरमणे जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजति. उकोसेणं दसजोयणसताई' इसी प्रकार से स्वयंभूरमणसमुद्र में मत्स्यों की शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से १ हजार योजन की कही गई है ॥१०७॥ २मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ.-'गोयमो ! जहण्णोणं अंगुलस्स असंखेज्ज तिभागं उक्कोसेणं पंच जोयणसयाई' गौतम ! १९५ समुद्रमा भासामान। શરીરની અવગાહના જઘન્યથી તે આંગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુની ४डस छ. मने उत्कृष्टथी पायसे योनी वामां आवेस छे. 'एवं कालोए उक्कोसेणं सत्त जोयणसयाई' मे४ प्रमाणे सो समुद्रमा ५ धन्य અને ઉત્કૃષ્ટથી માછલાઓની શરીરની અવગાહના કહેલ છે. અર્થાત્ કાલોદ સમુદ્રમાં જઘન્ય અવગાહના આગળના અસંખ્યાતમાં ભાગની કહેલ છે અને उत्कृष्टथी ७०० योजननी अवामा सविस छ. 'सयं भूरमणे जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जति० उक्कोसेणं दस जोयणसयाई' मे प्रमाणे स्वय भू२भए समुद्रमा મસ્યાના શરીરની અવગાહના જઘન્યથી આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે. જે સૂ. ૧૦૭ છે जी० ११६ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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