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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू. १०६ जम्बूद्वीपादयः नाम्ना निर्दिश्यन्ते ९१३ (मिसरी) ततः परं पाको विषायते तत्तृतीय पाकेनाऽऽदौ - अवसाने च संमिश्रितम्) वर्णरसगन्धस्पर्शैरुपेतं सत् यथा तथाऽवेहि । गौतमः प्राह - संभाव्यते, भगवानाह - नहि नहि भोः 'णो इणट्ठे समट्ठे' नायमर्थः समर्थः, एष उपदेशस्तज्ज्ञापयितुं न समर्थः एवंविध क्षीरादपि कान्ततरम्० तर्कतो ज्ञातव्यं भवेत् । 'घयोदस्स नं० ? से जहा णामए - सारइकस्स गोघयवरस्स मंडे सल्लइकष्णियारपुरफवण्णाभे सुकडिय उदारसज्झवीसंदिए-वणेणं उबवेर- जाव फ्रासेण य उबवे भवे एयारूवे सिया ? णो इणट्ठे समट्ठे, इत्तो इतरो ०' कीदृगुदकं घृतोदकस्य ? भगवानाह - हे गौतम ! स यथा नामकः शारदीय गोघृतवरस्य मण्डः सारः शल्लकीकर्णिकार पुष्पस्य वर्णवदवभासः सुखेन क्वथितोदार सद्यो विष्यन्दितः वर्णेनोपेतः यावद्रस स्पर्शैरुपेतः । गौतमः सपरितोषमाह - भवेदेवंविधं जलम्, यावत् वह स्पर्श द्वारा विशिष्ट बन जाता है - इसी प्रकार का क्षीरोदसमुद्र के जल का स्वाद है 'भवेएया ख्वेसिया' हे भदन्त ! क्षीरोदकसमुद्र का जल ऐसा है क्या यही अर्थ यहां समर्थित हुआ है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'णो तिणट्ठे समट्ठे' हे गौतम ! ऐसा अर्थ यहां समर्थित नहीं हुआ है क्योंकि 'खीरोयस्स० एतो इट्ठ जाव अस्साएणं पण्णत्ते' क्षीरोदसमुद्र का जल तो इससे भी विशिष्टतर स्वाद में है 'घयोदसणं भंते !' हे भदन्त ! घृतोदकसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-' से जहा नामए सारतिक्खस्स गोधयवरस्स मंडे सल्लइकण्णियार पुष्पवण्णाभे सुकड़ित उदारसज्झवीसंदिते वण्णेणं उववेते जाव फासेण य उववेए' हे गौतम! जैसे शल्लकी अथवा कनेर के फूल के वर्ण जैसा शारदीय गोघृत का मण्ड जो कि गाय के थन में से निकलते ही दूध के गरम करने से दूध के ऊपर आ जाता है वर्णादि से विशिष्ट हुआ स्वाद में प्रतीत होता है उसी उत्तरभां प्रभुश्री उडे छे - 'णो इणट्टे समट्टे' हे गौतम! मे अर्थ सहींयां समर्थित थयेल नथी. }भङे ‘खीरोयस्स० एत्तो छु जाव अस्साएणं पण्णत्ते' क्षीरोहसमुद्रनु भजतो तेनाथी पशु विशेष प्रारना स्वाहवाणु होय छे. 'घओदस्स णं भंते !" હે ભગવન્ ધૃતાદક સમુદ્રનુ' જળ સ્વાદમાં કેવુ' હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री छेडे - 'से जहा नामए सारतिक्खस्स गोघयवरस्स मंडे सल्लइ कण्णियार पुण्फवण्णाभे सुकडूढित उदारसज्झवी संदिते बण्णेणं उववेते जाव फासेणय उववेए' हे ગૌતમ ! જેમ શલ્લકી અથવા કરેણના ફુલના વર્ણ જેવા શરદ્ ઋતુના ગાયના ઘીનું મંડ–તર જે ગાયના સ્તનેામાંથી નીકળતાંજ દૂધને ગરમ કરવાથી દૂધની ઉપર આવી જાય છે. વધુ વિગેરેથી વિશિષ્ટ અનેલ સ્વાદવાળું બને છે. એજ जी० ११५ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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