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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५६ विजयद्वारस्य पार्श्व योर्वर्णनम् ७१ कृता इव, यथाहि किमपि वस्तुवंशादिमय प्रच्छादन विशेषाद्वहिष्कृतमत्यन्तमवि ष्टच्छायं भवति, एवं तेऽपि प्रासादावतंसकाः प्रकाशितप्रभावन्तः सन्तीति । 'मणिकणगधूभियागा' मणिकनकस्तूपिकाः, तत्र मणिकनकमय्यः स्तूपिका:शिखराणि येषां ते तथा, तथा-'वियसियसयपत्तपोंडरीयतिलगरयणद्धचंदचित्ता' विकसितशतपत्रपौण्डरीकतिलकरत्नादर्धचन्द्रचित्राः विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरत्नानि भित्यादिषु पुण्डविशेषा अर्धचन्द्राश्च द्वारादिषु तैश्चित्राः नानारूपा आश्चर्यभूता वा इति, 'णाणामणिमयदामालंकिया' नानामणिमयदामालंकृताः, नाना-अनेकप्रकारका ये चन्द्रकान्तादि मणयः तन्मयानि यानि दामानि-कुसुममालाः तैरलकृतानिउपशोभितानीति, "अंतो बाहि च सण्हा' अन्तबेहिश्च श्लक्ष्णा:- श्लक्ष्ण पुद्गलस्कन्धयुक्ताः, 'तवणि जरुइल बालुयपत्थडगा' तपनीयरुचिरबालुकाप्रस्तटाः, हो वंशादिकी पंचों से निर्मित पिंजरादि के भीतर जो वस्तु रखी रहती है उसकी छाया-फीकी नहीं पडती है, इसी तरह से इन जालियों में जो रत्न लगे हुए हैं उनसे इनकी कान्ति बढ गई है-अतः इन्हें सूत्रकारने इस प्रकार से उपमित किया है 'मणिकणगथूभियागा' इन के उपर जो शिखरें हैं वे मणियों का और सुवर्ण के बने हुए हैं 'वियसियसयपत्तपोंडरीयतिलगरयणद्ध चंदचित्ता' इनके द्वार प्रदेश में विकसित शतपत्रों के शतपत्रवाले कमलों के और पुण्डरीकों के चित्र बने हुए है भीतों में तिलक रत्न जडे हुए है और अर्ध चन्द्र के चित्र खींचे हुए है ‘णाणामणिमयदामालंकिया' ये प्रकठक अनेक मणियों की बनी हुई मालाओं से अलंकृत बने हुए हैं 'अंतो बाहिंच सहा' भीतर और बाहर ये चिकने हैं । इलक्षण पुद्गलों से युक्त है 'तवणिज्जवालयपत्थडगा' इनके भीतर तपनीय सुवर्णकी અંદર જે વસ્તુ રાખેલ હોય છે, તેની છાયા ફીકી પડતી નથી. એજ રીતે એ જાળીમાં જે રત્નો લગાડેલા છે, તેનાથી તેની કાંતી ઘણીજ વધેલી જણાય છે. तेथी। सूत्रा२ तेने मारीते ५ मापेटा छ 'मणिकणगथूभियागा' तेना १२ शिप छ, ते भणियोन मने सोनाना मनावेस छ. 'वियसियसय पत्तपोंडरीयतिलगरयणद्धचंदचित्ता' तेना २ प्रदेशमा विसित थयेशतपत्राना શતપત્રાવાળા કમળ અને પુંડરીકેના ચિત્ર ચિત્રેલા છે. તથા તેમાં તિલક तो छ. तभ०१ २. यद्रा२ चित्रो मेयेसा छे. 'णाणामणिमय दामालकिया' मा छ। मने प्रारना मणियोथी मनावेस भाजामाथी मला कृत ४२॥ छ. 'अंतो बाहिच सहा' को मह२ मने प२ शिवछे. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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