SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 805
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७९२ जीवाभिगमसूत्रे शुभलेश्याः शीतलेश्याः मन्दतेजसः (सूर्या एव) मन्दातपलेश्यावन्तः पुनश्च चन्द्रादित्याश्चित्रान्तरलेश्याः - चित्रार्पिता इव पर्वतशिखर संस्थानसंस्थिताः अन्योन्यं समवगाढ लेश्याभिः परस्परं बाधिततेजसस्ते ते तांस्तान् प्रदेशान् सर्वतः समन्तात् उद्योतयन्ति, तपन्ति, प्रभासन्ते। 'जया णं भंते ! तेसि देवाणं इंदे चयइ-से कह मिदाणिं पकरेइ ? गोयमा ! जाव चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति जाव तत्थ अण्णे उववण्णे भवइ, इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइयं कालं विरहओ उववाएणं ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समय-उक्कोसेणं शब्दों से मानों समुद्र को वाचालित करते हुए दिव्य भोग भोगों को भोगते रहते हैं 'सुहलेस्सा, सीयलेस्सा मंदलेस्सा, मंदायवलेस्सा चित्तंतरलेसागा कूडा इव ठाणहिता' चन्द्रमा की अपेक्षा ये शुभ लेश्या वाले हैं मंदलेश्या वाले हैं चित्रांतर लेश्या वाले अर्थात् चित्र अंतर वाले और चित्र विचित्र लेश्या वाले हैं कूट की तरह ये एक स्थान पर स्थित हैं 'अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं ते पदेसे सव्वतो समंता ओभाति, उज्जोति, तवंति, पभासेंति' आपस में एक दूसरे के तेज से जिनका तेज मिश्रित है ऐसी लेश्याओं से ये उन उन प्रदेशों को चारों ओर से चमकाते हैं, उद्योतित करते हैं तपाते हैं प्रकाशित करते हैं । 'जयाणं भंते ! तेसिं देवाणं इंदे चयति से कहमिदाणिं पकरेति' हे भदन्त ! जब इनका इन्द्र चवता है तब उसके विना ये क्या करते हैं ? 'गोयमा ! जाव चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति' हे गौतम! यावत् जहां तक वहां दूसरा इन्द्र उत्पन्न सुहलेस्सा, सीयलेस्सा, मंदलेस्सा चित्तंतरलेसागा कुंडाइव ठाणद्विता' यंद्रनी અપેક્ષાએ તેઓ શુભલેશ્યાવાળા છે. શીત લેશ્યાવાળા છે. મંડલેશ્યાવાળા છે. ચિત્રાતર લેશ્યાવાળા છે. અર્થાત્ ચિત્ર જેમા ચિન્નેલ છે તેવા અને ચિત્ર વિચિત્ર सेश्यावा हाय छे. टनी भा५४ ते ४०४ स्थान ५२ २९ छ. 'अण्णाण्ण समोगाढाहिं लेसाहि ते पदेसे सव्वओ समंता ओभासेंति उज्जोवेंति तवंति पभासें ति' પરસ્પરમાં એક બીજાના તેજની સાથે જેઓને તેજ મળેલ છે, એવા પ્રકારની લેશ્યાઓથી તેઓ એ પ્રદેશને ચારે બાજુએથી ચમકાવે છે. ઉદ્યોતિત पुरे छ तपाचे छ. प्रशित ४२ छ. 'जयाणं भंते ! तेसिं देवाण इंदे चयति से कहमिदाणिं पकरेंति' भगवन् ! न्यारे तमान। 'द्र यवे छे. त्यारे तेना शिवाय तसा शु ४२ छ. 'गोयमा ! चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति' है गौतम ! यावत् यां सुधी त्या माने अत्यन्न જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy