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________________ ७८८ जीवाभिगमसूत्रे उक्कि डिसीहणायबोलकलकलसदेणं विउलाई भोग भोगाई भुंजमाणा - अच्छपव्वयरायं पयाहिणावत्तमंडलयरं मेरुं अणुपरियडंति' ते खलु देवाश्चन्द्रादय मनुष्यक्षेत्रस्थाः देवा: हे गौतम ! नो उर्ध्वोपपन्नकाः सौधर्मादिभ्य ऊर्ध्वं नोपपन्नाः, नो कल्पोपपन्नकाः सौधर्मादिषु नोपपन्नाः किन्तु - विमानोपपन्नकाः सामान्यतो विमानोपपन्नकाः चारोपपन्नकाश्च नो चारस्थितिकाः - चारस्य स्थिति-रभावस्तद्वन्तो नो, किन्तु - गतिरतिकाः- स्वभावागतौ-गमने रतिः - आसक्तिः तद्वन्तः, गतिसमापन्नकाः - साक्षाद्गतिमन्तः ऊर्ध्वमुखकदम्ब (नालिका) पुष्पस्य गोलाकृतिसंस्थानसंस्थितै यजनसाहस्रिकैस्तापक्षेत्रः सहस्र संख्याभिः बाह्याभि वैकुर्विकाभिः पर्षद्भिः महताऽऽहत नृत्यगीतवादित्रतन्त्रीतल तालत्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् अनिर्वचनीयान् तांस्तान् अलौकिकभोगान् भुञ्जन्तो भुञ्जाना: स्वभावतो गतिरतिकै बाह्यपरिषद्गतै देवैवेगेन गच्छद्विमानेषु महता - उत्कृष्टतः उत्कर्षवशेन सिंहनादस्य (बोलवत्) कल-कलो यः शब्दस्तेन (बोलो नाम मुखे हस्ताङ्गुलिं निवेश्य महता शब्देन पूत्करणम् तारतारः (सीटी) कलकलः व्याकुलितशब्दसमूहस्तच्छब्देन महत्समुद्रोद्घोषो बोलो भवति) तथा च तद्रवेण याहिं परिसाहिं' उर्ध्वमुख वाले कदम्ब पुष्प के जैसे आकार वाले अनेक योजन सहस्र प्रमाण युक्त क्षेत्रों में ये भ्रमण करते हैं साथ में इनते बाहिर की विकुर्वित परिषदा के देव रहते हैं 'महया हयनगीतवादित तंतीतलताल तुडियघणमुइंगपडुप्पवादितरवेणं' बडे ठाट वाट से नृत्य करते हुए, गीत गाते हुए, वादित तंत्रि ताल त्रुटित आदि वादित्रों को बजाते हुए वादित्रों के शब्दो से मानों 'उक्कि सीहणायबोल कलकलसद्देण' ये सिंह की जैसी गर्जना न कर रहे हों इस प्रकार से होकर तथा सीटी बजा २ कर - घनघोर शब्द करते हुए 'दिव्वाई भोग भोगाई भुजमाणा' एवं दिव्य भोग भोगों को स्सियाहि बाहिरियाहि वेउब्वियाहि परिसाहिं' या भुवाणा उभ्याना पुष्योना જેવા આકારવાળા અનેક ચૈાજન સહસ્રપ્રમાણથી યુક્ત ક્ષેત્રમાં એ ભ્રમણ કરે छे, तेन तेनी साथै महारना विठुर्वित परिषहाना हेव रहे छे. 'महयाहय नगीतवादित तंतीतलतालतुडियघणमुईंगपडुप्पवादितरवेणं' धान ठाउमाथी नाथ કરતા એવા, ગીતગાતા એવા, વાજી ંત્ર તંત્રી તલ તાલ ત્રુટિત વિગેરે पात्रो वगाडता सेवा से पात्रोमा शम्होथीन्नणे 'उक्किट्ठसीहणायबोलकलकल सद्देण' तेथे। सिंहना देवी भागे में गर्भनाओ न उरता होय ? सेवी रीते શબ્દો કરતા થકા તથા સીટી વગાડી વગાડીને ઘન ઘેાર શબ્દો કરતા કરતાં 'दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणा' तथा हिव्य सेवा लोग लोगवता थ। ' अच्छय જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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