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________________ ३७४ जीवाभिगमसूत्रे स्वरूपज्ञानाय पृच्छामि, 'केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' कियन्तं कालं स्थितिः भवति' गोयमा ? एगंपलिओवमं ठिई पन्नत्ता' एकं यावत्पल्योपमं स्थितिं विद्धिगौतम ! 'विजयस्स णं भंते ! देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिइ पन्नत्ता?' विजयदेवस्य सामानिकानां देवानां ब्रूहि भगवन् कियन्तं कालं स्थिति रुक्ता? भगवानाह-'गोयमा' गौतम ! 'एग पलिओवमं ठिई पत्नत्ता' एक पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता इति । 'एवं महडिए-एवं महज्जुत्तीए-एवं महब्बले-एवं महाजसे एवं महामुक्खे-एवं महाणुभागे' एवमेव महर्दिक:-महाद्युतिक:महाबलः-महायशाः-महासौख्यः महानुभागः प्रत्येकैकस्य स्थितिमा॑तव्या, सर्वेऽद्भुत सुखसम्पन्ना इत्यर्थः, 'विजए देवे-विजएदेवे' एवं प्रभावो विजयो देवो विजयो देवः । प्रकरणसमाप्ति द्योतयितुं द्विरुक्तिर्दर्शिता ॥सू०॥७०॥ विजयदेव की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! एगं पलिओवमंठिती पण्णत्ता' हे गौतम ! विजयदेव की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है 'विजयस्स णं भंते ! देवस्त सामाणियाणं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता' हे भदन्त ! विजयदेव के सामानिक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? 'एगं पालिओवमं ठिती पण्णत्ता' हे गौतम एक पल्योपम की स्थिति विजयदेव के सामानिक देवों की कही गई है 'एवं महिडीए, एवं महज्जुत्तीए, एवं महव्वले, एवं महायसे, एवं महासुक्खे, एवं महानुभागे विजए देवे' विजय देव की ऐसी महाऋद्धि है ऐसी महाधुति है ऐसा महाबल है ऐसा महायश है ऐसा महासौख्य है और ऐसा उसका महाप्रभाव है ॥७॥ हुवे गौतमस्वामी प्रसुश्रीने ये पूछे छे -'विजयस्स णं भंते ! देव सकेवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ! महन्त ! विन्य देवनी स्थिति 20 नी કહેવામાં આવી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा ! एग पलिओवमं ठिई पण्णत्ता ? 3 गौतम विन्यपनी स्थिति में योपभनी उस छ. 'विजयरस णं भंते ! देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवइय कालं ठिई पण्णत्ता' लावन् विन्य वोना सामानि योनी स्थिति सा पानी स्वामी वी छ ? 'एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता' गौतम विन्य हवन सामानि हेवोनी स्थिति मे४ पक्ष्यापभनी उस छ. 'एवं महिढीए, एवं महज्जुईइ, एवं महत्वले, एवं महाजसे, एवं महासोक्खे, एथं महाणभागे विजए देवे' विन्य वनी मेवी मड * छ. २ शतनी भडाधुति छ. से પ્રમાણે મહાબળ છે. એ પ્રમાણે મહાયશ છે. એ પ્રમાણે મહાસખ્ય છે. मन मेरीतनो मेने भडामा छ. ॥ सू. ॥ ७० ॥ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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