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________________ ३७३ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.७० विजयादिद्वारनिरूपणम् त्मरक्षका इति, 'गुत्तपालिया' गुप्ताः अप्राकाश्यंगताः पालिकाः परिखादयो येषां ते गुप्तपालिकाः 'जुत्ता' युक्ताः स्वमनोनीत सेवकैरुपेताः 'जुत्तपालिया' युक्तपालिताः युक्ताः परस्परं बद्धा नतु-बृहदन्तरालापालिः सेतुर्येषान्ते, 'पत्तेयं२ प्रत्येयं २ 'समयतो विण यतो' समयविनयाभ्याम् 'किंकरभूयाविव चिट्टति' किंकरा इव तेऽमरास्तिष्ठन्ति, नेमे किंकराः किन्तु-शिष्टाचारवन्तो विनीताश्चात एतै विजयो देवः संमान्यते, यतोहि एतेषामपि साकमनेन सम्मानासनादीनि शास्त्रे लभ्यन्ते, एतेषां परिचयार्थ प्रश्नः ‘गोयमा' गौतम ! इत्थं संबोध्य भगवत उत्तरम् । तथाहि-'विजयस्स णं भंते ! देवस्स' हे भदन्त ! विजयदेवस्य क्खगा' अंगरक्षक हैं 'रक्खोवगा' उसके रक्षा कर्म में निरत है 'गुत्ता गुत्तपालिया' ये विजयदेव के अङ्गरक्षक हैं। इस प्रकार से अन्य देव इन्हें नही जानते तथा इनकी परिखा आदि को भी कोई नहीं जानता क्यों कि वह इनकी गुप्त रूप में रहती है 'जुत्ता' ये स्वमनोनीत सेवकों से युक्त होते हैं 'जुतपालिया' तथा इनकी जो सेतु रूपपालि हैं वह परस्पर में बद्ध रहती है बहुत अन्तराल वाली नहीं होती है ये पत्तेयर प्रत्येक आत्मरक्षकदेव 'समयतो विणयतो किंकरभूताविव चिट्ठति' अपने आचार के अनुसार विनय पूर्वक किङ्कर के जैसे होकर वहां बैठे रहते है वैसे ये उसके किंङ्कर नहीं हैं ये तो शिष्टाचार वाले और विनीत है अतः इनके द्वारा विजय देव सम्मानीत होता है विजय देव के समान ही इनकी समानता होती है और इनके समान ही इनके आसन आदि ऐसा शास्त्रों में देखा जाता है अब गौतमस्वामी प्रभु से पूछते हैविजयस णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता' हे भदन्त ! माभ२६४ । विश्य देवना 'आयरक्खगा' २५॥ २१। उता 'रक्खोवगा' તેઓ વિજય દેવના અંગરક્ષકે છે એ પ્રમાણે અન્ય દેવે તેમને જાણતા નથી તથા તેઓની પરીખા વિગેરેને પણ કોઈ જાણતું નથી. કેમકે તે ગુપ્ત રીતે २ छ. 'जुत्ता' से पोताना मनोनीत सेवीथी युत २ छ. 'जुत्तपालिया' તથા તેઓની સેતુ રૂપ જે પાળે છે તે એક બીજાને સંબંધિત રહે છે. धारे ५७॥ मांतराती हाती नथी. से 'पत्तेयं पत्तेय' १२४ माभ२६४ देव। 'समयतो विणयतो किंकरभूता विवचिठंति' पोताना माया२ अनुसार વિનય પૂર્વક સેવકોની જેમ ત્યાં બેસી રહે છે. આમ તે તે તેઓના સેવક નથી. તેઓતો શિષ્ટાચાર વાળા અને વિનયાન્વિત છે, તેથી તેઓ દ્વારા વિજય દેવ સન્માનીત થાય છે. વિજય દેવની સરખાજ તેઓ છે. અને તેઓના સમાનજ તેઓના આસન વિગેરે છે. એ પ્રમાણે શાસ્ત્રોમાં જોવામાં આવે છે. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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