SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६७ विजयदेवस्य कामदेवप्रतिमापूजनम् ३४३ 'चित्तरयणुक्कडं मउडे'-चित्ररत्नोत्कटं मुकुटम् तत्र चित्राणि नानाप्रकारकाणि यानि रत्नानि तैः उत्कटः प्रभूतरत्ननिचयोपेतः इत्यर्थः । 'पिणिधेइ'-एतादृशमाभरणादिकं पिनह्यति, 'पिणिधित्ता'-पिनयोक्तरत्नाभरणानि, 'गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेण चउबिहेणं मल्लेणं' ग्रन्थिमवेष्टिमपूरिमसंघातिमेन चतुर्विधेन माल्येन, तत्र-ग्रन्थिमं ग्रन्थनिवृत्तं वेष्टिमं-यद्रन्थितं सत् वेष्टयते यथा पुष्पलंबूसकं (झम्मनकम्) पूरिमं येन वंशशलाकादि मयपञ्जरी पूर्यते, संघातिमं-यत्परस्परतो नालसंघातेन संघात्यते, 'कप्प रुक्खयं पिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करें ति'-एवं विधेन चतुर्विधेन माल्येनाऽऽत्मानं कल्पवृक्षमिवाऽलङ्कृतविभूषितं करोति, 'कप्परुक्खयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेत्ता'-कल्पवृक्षमिवस्वाविशेषकों तथा 'चित्तरयणुक्कडं मऊड' नाना प्रकार के रत्नों से उत्कृष्ट मुकुट को 'पिणिधेई' पहिरा 'पिणिधेत्ता' इस प्रकार के पूर्वोक्त समस्त आभरणों को यथा स्थान पहिर करके 'गंठिमवेदित पूरिम संधाइमेणं चउठिवहेणं मल्लेणं' फिर उसने ग्रन्थिम डोरे में गांठे लगा२ कर वनाई गई माला से वेष्टिम-पुष्पलंम्वूसक झम्मनक की तरह डोरों को वेष्टित करके बनाई गई माला से पूरिम वेश शलाकाओं को आपस में पूरकर बनाई गई टोकरी आदि की तरह फूलों को पूरकर बनाई गई माला से और संघातिम-परस्पर में नालों को जोड़कर बनाईमाला से-इन चार प्रकार की मालाओं से अपने आपको अलंकृत कर विभूषित किया उस समय वह ऐसा लगा था कि मानों यह एक 'कप्परुक्खयंपिव' कल्पवृक्ष ही है 'कप्परुक्खयंपिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेत्ता' कल्पवृक्ष की तरह अपने को अलंकृत एवं विभूषित कडं मउडे' मने प्रा२ना रत्नाथी उत्तम भुटने 'पिणिधेई' पडेय 'पिणिधेत्ता' मा शतना पूरित सामानणाने योग्य स्थान परीने 'गंढिम वेठिमपूरिम संघाइमेणं चउव्विहेणं मल्लेणं' ते ५छी तेणे अन्थिम-होरामा iith eगावी લગાવીને બનાવવામાં આવેલ માળાથી વેષ્ટિમ-પુષ્પના તંબૂસક-ઝભનકના જેમ દેરાથી વીંટીને બનાવવામાં આવેલ માળાથી પૂરિમ–શલાકાઓને પરસ્પર પરોવીને બનાવવામાં આવેલ ટોપલી વિગેરેની જેમ ફુલેને પરોવીને બનાવવામાં આવેલ માળાથી અને સંઘાતિમ–એક બીજામાં નાળાને જોડીને બનાવવામાં આવેલ માળાથી આ રીતે આ ચાર પ્રકારની માળાઓથી પિતાને અલંકારિત शन विभूषित ४ ते १मते मे तु तु 10 २0 से 'कप्परू क्खवयंपिव' ४८५३३४ छ 'कप्परुक्खयं पिव अप्पाण अलंकियविभूसियं करेत्ता' सु४२ सवा ४६५वृक्षनी म पाताने त मने विभूषितरीन 'दद्दरमलय જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy